शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

सज्जन-दुर्जन का भेद


सज्जन जाने सबकुछ, परंतु आचरण करे योग्य ही; जबकि दुर्जन जाने सबकुछ, परंतु करनी अयोग्य की ही करे। सज्जन और दुर्जन में यह भेद है। अयोग्य की करनी करने वाले के गुण विष्ठा में गिरे हुए फूल जैसे हैं और वे अस्वीकार्य हैं। पहले के समय में कहावत थी, ‘साहुकार धूल में से पैसे न ले’, क्योंकि वह तो धूल धोनेवालेका काम है। उसमें उनकी साहुकारी प्रशंसित होती थी। सेठ साहुकारों के वर्णन ग्रंथकार ने लिखे, वह योग्यता थी इसलिए। अयोग्य की लक्ष्मी की प्रशंसा तो मदांध बनाने के लिए है। उसी प्रकार गुण के लिए भी समझना चाहिए। इसी कारण से उपकारीजन कहते हैं कि श्री जिनागम से विपरीत जिनकी दृष्टि है, वे सारे मिथ्यादृष्टि हैं। उनमें से किसी एक को नहीं लिया जा सकता। कपिलादि सर्व कुदर्शन में और जैन दर्शन में समान भाव रखना, यह सम्यक्त्व का दूषण है। सारे दर्शन यदि युक्तियुक्त हो तो एक ही दर्शन का अनुयायीपन क्यों पकडते हैं? जैन ही क्यों कहलाते हैं? सर्वमतानुयायी कहलवाएं न!

भगवानश्री हरिभद्रसूरिजी महाराजा ने, ‘मुझे वीर के प्रति पक्षपात नहीं और कपिलादि के प्रति द्वेष नहीं है। जिसका वचन युक्तिवाला है, उसे ही ग्रहण करना चाहिए।इस प्रकार कहा है, यह बात सत्य है; परंतु वह परमर्षि नमामि वीरम्कहते हैं, परंतु नमामि कपिलम्ऐसा नहीं कहते। जो लोग उनका एक ही वाक्य लेते हैं और दूसरा नहीं लेते, वे शास्त्र के चोर हैं; ऐसे लोगों को इस महापुरुष के वचन को बोलने का भी अधिकार नहीं है। वाक्य दूसरे का और क्रिया अपनी, यह कैसे चले? श्री हरिभद्रसूरि कौन थे? चौदह विद्या के पारगामी थे, पर जब सत्य समझ में आया कि तुरंत वेदांत छोडकर जैनशासन की शरण आए, परन्तु मैं विचार स्वातंत्र्य को मानने वाला हूं, ‘भले वेद मुझे मान्य नहीं हैं, परंतु उत्तेजन तो दूंगा ही।ऐसा नहीं कहा। कपट मुझे पसंद नहीं है, परंतु व्यक्ति स्वातंत्र्य के लिए उसे उत्तेजन दूंगा।ऐसा साहुकार कहेगा? कभी वह सिद्ध हो जाए और पकडा जाए तो सजा नहीं होगी? भगवानश्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने जैनदर्शन के स्वीकार के बाद सभी विपरीत दर्शनों का खंडन किया है। शास्त्रों में अभव्य का वर्णन है, प्रशंसा नहीं। अभव्यों से अनेक तिर गए।यह तो बनी हुई घटना कही; ‘अभव्य से अनेक तिर सके।यह वस्तुरूप कहा, अभव्य भी अपने अभव्यपने को भीतर रखकर प्रभु-प्रणीत मार्ग को यथार्थ दीखाता है और दूसरों के पास आराधना करवाता है, तो दूसरों को तार सकता है और दूसरे तिर सकते हैं। अभव्य से अनेक तिर गए ऐसा कहा, परन्तु अभव्य को अच्छा कहा है? नहीं ही। क्योंकि, अभव्य के ज्ञान को अज्ञान कहा है। उसके संयम को असंयम कहा है और उसका धर्म वस्तुतः धर्म ही नहीं है, ऐसा भी कहा है। उसके तप की भी प्रशंसा नहीं की है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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