सोमवार, 27 जनवरी 2014

गुणों में ही आनंद हो, गुणाभास में नहीं


देवतत्त्व के विषय में देखें तो श्री अरिहंत देव जैसे दुनिया में कोई देव नहीं हैं। गुरुतत्त्व के विषय में सोचें तो श्री जैनशासन में जो सुसाधु हैं, वे दुनिया के किसी भाग में नहीं हैं और धर्मतत्त्व के विषय में कोई भी दर्शन, श्री जैनदर्शन द्वारा प्ररूपित धर्मतत्त्व के साथ स्पर्द्धा कर सके वैसा नहीं है। विश्व में एक श्री जैनदर्शन ही सर्वश्रेष्ठ है।यह सत्य कहीं भी और कभी भी सिद्ध हो सकने योग्य है। अतः गुणानुराग के नाम से परम पुण्योदय से प्राप्त हुआ श्री जैनशासन हाथ से छूट न जाए, इसकी पूरी सावधानी रखनी चाहिए। इसकी जितनी उपेक्षा, उतना आत्महित का घोर नाश है, यह कभी भी भूलना नहीं चाहिए।

जो गुण, योग्य स्थान में हों उनकी प्रशंसा वाजिब है; परंतु जो गुण अयोग्य स्थान में हों, वे गुण गुणाभास हैं, उस कारण से उनकी प्रशंसा, यह सम्यक्त्व में दूषण है। श्री उपाध्यायजी महाराज कहते हैं कि मिथ्यामती के गुण की प्रशंसा से उन्मार्ग की पुष्टि होती है।भगवानश्री हेमचंद्रसूरिजी महाराज भी कहते हैं कि, ‘श्री जिनागम से विपरीत दृष्टि जिनकी है, वे सब मिथ्यादृष्टि आत्माएं हैं और उनकी प्रशंसा यह सम्यक्त्व में दूषणरूप है।जिनकी श्री जिनेश्वरदेव के आगम के अनुरूप दृष्टि नहीं है, उनमें कोई गुण नहीं होता ऐसा नहीं, वहां अच्छी वस्तु नहीं होती, ऐसा नहीं, उसकी अच्छी करनी की अनुमोदना न हो, ऐसा नहीं, परंतु उस गुण, अच्छी वस्तु या अच्छी करनी को लेकर मिथ्यामती की प्रशंसा नहीं होती।

चार भावना में दूसरी भावना प्रमोद भावना है। प्रथम मैत्री, दूसरी प्रमोद, तीसरी कारुण्य और चौथी माध्यस्थ भावना। जहां-जहां गुण देखे जाएं, वहां उन्हें देखकर आनंद हो, यह प्रमोद भावना है। परंतु गुण के रूप में वे बाहर कब रखे जाएं? जिनमें गुण दिखाई दिया, उनकी दृष्टि सम्यग् होने के पश्चात ही। गुण देखकर आनंद हो, यह प्रमोद भावना है, परन्तु अयोग्य स्थल में रहे हुए गुण की प्रशंसा, यह सम्यक्त्व को दूषित करने वाली है। गुण देखकर आनंद होना, यह तो सम्यक्त्व का पोषण करने वाला है, परंतु अयोग्य स्थल के गुण की प्रशंसा सम्यक्त्व को दूषित करती है। प्रमोद भावना और सम्यक्त्व का चौथा दोष, इन दोनों का भेद अत्यंत चिंतनीय-मननीय है। सम्यग्दृष्टि आत्मा को जहां-जहां गुण दिखाई दे, वहां-वहां आनंद हो ही, गुण देखकर तो उसकी आत्मा उल्लास पाए, आनंद का प्रादुर्भाव भी हो, रोम-रोम विकस्वर भी हो, उसकी प्रसन्नता की सीमा भी न रहे, परंतु वह गंभीर इतना अधिक हो कि मुंह से बोलने से पूर्व सौ बार विचार करे। सभी के गुण हृदय में धारण कर रखे, गुण देखकर निरवधि आनंद भी हो, परंतु प्रशंसा तो योग्य गुणवान की ही करे। जैसे-तैसे और जिस किसी के गुण की प्रशंसा करने वाला तो परिणाम में गुण का घातक ही बनता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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