सोमवार, 20 जनवरी 2014

पुद्गलानंदिता बहुत ही भयंकर वस्तु है


श्री जिनेश्वर देव का मत सुंदर है, परंतु आसानी के लिए अन्य दर्शन में जाने की भावना हो तो यह कोई असभंवित बात नहीं है। बौद्ध दर्शन में स्नान, इच्छित भोजन और पान इत्यादि की छूट, गद्दी इत्यादि पर शयन करने की छूट, सारी ही सुख-सामग्री की छूट, फिर भी वहां धर्म गिना गया, इसलिए ऐसे धर्म में जाने की भावना जल्दी हो, परंतु यह कांक्षा नाम का दोष है और यह सम्यक्त्व को दूषित करने वाला है, यह बात कभी भी भूलनी नहीं चाहिए।

जो आत्माएं धर्म की इच्छा के बजाय अनुकूलता को अधिक चाहने वाली हैं, उन्हें यह खयाल शायद ही रह सकता है। ऐसी आत्माएं प्राप्त हुए प्रभुशासन को आसानी से हार जाती हैं, क्योंकि पुद्गलानंदिता यह बहुत ही भयंकर वस्तु है। आत्मा अनादिकाल से पुद्गल का रागी है। पुद्गल का प्रेम तो उसका जीता और जागता है। पुद्गल को हर्ज न आए, यह भावना तो उसकी निश्चित है, इसलिए किसी भी शास्त्र में उसकी सेवा की बात आए कि वह तुरंत पकड ले! धर्म सम्हालने में इस (पुद्गल) को प्रधान गिनना चाहिए।ऐसी बात आए वहां शक्ति के बहाने निकाले कि, ‘जैसी शक्ति वैसी भक्ति।और इस शरीर के बिना धर्म हो सकने योग्य नहीं है, इसलिए उसकी सेवा ठीक से करनी चाहिए’, यह बात आए कि एकदम पकड ले! अरे, इतना ही नहीं, अपितु अनुकूलता का अर्थी ऐसे आधार तो खोजता ही फिरता है!

केवल पुद्गलभाव की दृष्टि और उसमें उपादेय बुद्धि, यह मिथ्यात्व है। पुद्गल को अनुकूल आए ऐसी आसानी वाली चीज को आत्मा सहज ही पसंद करती है। उसे लेकर ही श्री जिनेश्वर देव के सुंदर दर्शन को छोडकर अन्य दर्शन की बातें ग्रहण करने की अभिलाषा जागृत हो, यह कांक्षा नाम का दोष है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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