‘विचिकित्सा
अर्थात् ‘चित्त का विप्लव’,
यह सम्यग्दर्शन का तीसरा दोष है। युक्ति एवं आगम इन दोनों
से उत्पन्न ऐसे श्री जिनधर्म की विद्यमानता होते हुए भी ‘रेत के
कोर की भांति स्वाद रहित ऐसे बडे इस तपरूपी क्लेश की फल-सम्पति भविष्यकाल में होगी
या निर्जरा फल से रहित ऐसा यह तपःकर्म केवल क्लेशरूप ही है, इस
प्रकार का चिंतन विचिकित्सा का स्वरूप है।’
‘क्योंकि
क्रियाएं उभय प्रकार की देखी जाती हैं: कितनी सफल और कितनी असफलः किसान आदि की
क्रियाएं भी उभय प्रकार की देखी जाती है, वैसे यह क्रिया भी उभय प्रकार
की हो, ऐसी संभावना की जा सकती है।’
‘उसका
कारण ऐसा कहा जाता है कि पूर्वपुरुष, श्री जिनेश्वर देवों द्वारा
निर्दिष्ट मार्ग की आचरणा करने वाले थे। इस कारण से उनको तो फल का योग होना समझ
में आता है, परंतु हमारे भीतर तो बुद्धि और संघयण का विरह होने से उन क्रियाओं का वैसा फल
हो, यह संभव नहीं है। इस प्रकार की विचिकित्सा भी भगवान श्री जिनेश्वर देव के वचन
में अविश्वासरूप होने से सम्यक्त्व का दोष है।’
‘यह
विचिकित्सा शंका से भिन्न नहीं है, ऐसा नहीं है, अपितु
भिन्न ही है।’
क्योंकि ‘शंका’ यह सकल और असकल पदार्थों को
भजने वाली होने से द्रव्य और गुण का विषय करने वाली है और यह ‘विचिकित्सा’ तो
केवल क्रिया का ही विषय करने वाली है।’
अथवा ‘विचिकित्सा’
अर्थात् ‘निंदा’ और वह ‘सुंदर
आचारों को धारण करने वाले मुनिवरों को विषय करने वाली हैः जैसे कि अस्नान के कारण
ये साधु दुर्गंध से भरे हुए शरीर वाले हैं: ये साधु यदि प्रासुक जल से अंग का
क्षालन करें तो क्या दोष होने वाला है? ऐसे प्रकार की ‘विचिकित्सा’ भी
परमार्थ से भगवानश्री जिनेश्वर देव के धर्म पर अविश्वासरूप होने से सम्यक्त्व का
दोष है।
श्री ‘सम्यक्त्वसप्ततिका’
के कर्त्ता परमर्षि भी ‘विचिकित्सा’ नाम
के तीसरे दोष का वर्णन करते हुए प्ररूपण करते हैं कि-
‘श्री
जिनेश्वर देव के वचन की आराधना के फल के प्रति संदेह का नाम ‘विचिकित्सा’ है
अथवा ‘विचिकित्सा’
अर्थात् मुनिजनों के विषय में जुगुप्सा (धिन) करना यह।’
यह सारा वर्णन समझाता है कि ‘श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित धर्म
की आराधना के फल में संदेह करना’ यह विचिकित्सा है। यह सब अच्छी तरह याद
रखना चाहिए। ‘प्रभु के वचन में शंका’,
उसका नाम ‘शंका’ नामक प्रथम दोष, ‘कुमत
की अभिलाषा’,
उसका नाम ‘कांक्षा’ नामक दूसरा दोष और ‘प्रभु
प्रणीत धर्म के अनुष्ठानों के फल की शंका’, उसका नाम ‘विचिकित्सा’ नाम
का तीसरा दोष है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें