सोमवार, 13 जनवरी 2014

सत्य की रक्षा हमारा परम कर्त्तव्य


गंभीर बात समझने के लिए मति की निर्मलता भी चाहिए, सुयोग्य, गीतार्थ ज्ञाता सद्गुरु का सद्भाव भी चाहिए, समझने में सहायरूप ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम और अनेक हेतु एवं उदाहरण भी चाहिए। फिर भी सब बात के लिए हेतु एवं उदाहरण मिल ही जाएं, यह कोई जरूरी नहीं हैं? मिले और न भी मिले। इन कारणों से छद्मस्थ को अनेक बातें समझ में न भी आए तो यह सहज है।

इसीलिए ही कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवानश्री हेमचन्द्रसूरिजी महाराजा कहते हैं कि उन-उन कारणों से अच्छी तरह समझ में न आए, तब भी बुद्धिशाली आत्मा, वहां ऐसा ही सोचे कि-

सर्वज्ञमतम् अवितथम्

श्री सर्वज्ञ परमात्मा का मत सत्य है।

परंतु, ऐसा विचार तो जो समझदार और अनाग्रही हों वही कर सकते हैं, कदाग्रही मूर्खलोग तो नहीं कर सकते।

कोई वस्तु कोई न माने, उसमें हमें दुःख नहीं होता, परंतु उस बेचारे पर दया आती है और कोई गंवार सच्ची वस्तु का नाश करने का प्रयत्न करे, तब यदि हम में अगर उसकी रक्षा करने की ताकत न हो तो ताकत को जुटाने का और वह ताकत जुटाने के बाद रक्षा के प्रयत्न में अविरतरूप से लगे रहने का हमारा अनिवार्य फर्ज है। उस फर्ज को चरितार्थ करना यही हमारा कर्त्तव्य!

हमारे उस कर्तव्यपालन से अज्ञात कदाग्रही लोग उद्धत बनें या गलत शोर मचाएं, उससे हमें चिंतित भी नहीं होना चाहिए और निराश भी नहीं होना चाहिए। क्योंकि, उपकारी महापुरुष फरमाते हैं कि अनुग्रह बुद्धि से अनंतज्ञानियों की आज्ञानुसार उपकार की प्रवृत्ति चालू रखें, उसके योग से भाग्यवंतों का कल्याण हो और भाग्यहीनों का न भी हो, परंतु ऐसी सुविशुद्ध प्रवृत्ति करने वाले का तो अवश्य कल्याण होता है।

दूसरा, श्री सर्वज्ञ परमात्मा का मत सच्चा है, ऐसा जो मतिमान सोचते हैं, वह कोई निष्कारण नहीं, अपितु सकारण है। इस प्रकार भी हमें यह उपकारी महापुरुष समझाते हैं और समझाते हुए फरमाते हैं कि वे तो बिना उपकार किए उपकारी थे, अर्थात् निष्कारण उपकारी थे, जगत में श्रेष्ठ थे, राग, द्वेष और मोह को जीतने वाले थे। ऐसे श्री जिनेश्वर देव अन्यथा कहते ही नहीं, क्योंकि उन तारक महापुरुषों को असत्य कहने का कारण ही नहीं होता है। असत्य उन तारक के मुख से निकलता ही नहीं। इसलिए सयाने मनुष्य को समझना चाहिए कि मेरे पास समझने के लिए साधन नहीं है, इसलिए जो मैं समझ न सकूं, वह वस्तु गलत है, ऐसा कहा ही नहीं जा सकता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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