मिथ्यामतियों की प्रशंसा के परिणाम से सम्यक्त्व का संहार और मिथ्यात्व की
प्राप्ति सहज है। ‘गुण की प्रशंसा करने में क्या हर्ज है?’ इस प्रकार बोलने वालों के लिए
यह वस्तु अत्यंत ही चिंतनीय है। गुणानुराग के नाम से मिथ्यामत एवं मिथ्यामतियों की
गलत मान्यताओं की मान्यता बढ जाए, ऐसा करना यह बुद्धिमत्ता नहीं है, अपितु
बुद्धिमत्ता का घोर दिवाला है। घर बेचकर उत्सव मनाने जैसा यह धंधा है। ‘गुण
की प्रशंसा’,
यह सद्गुण को प्राप्त और प्रचारित करने के लिए ही उपकारी
पुरुषों ने प्रस्तावित की है। उसका उपयोग सद्गुणों के नाश के लिए अथवा तो सद्गुणों
को ढांक (दबा) देने के लिए करना, यह सचमुच ही घोर अज्ञानता है।
सम्यक्त्व के अर्थियों को चाहिए कि ऐसे अज्ञान का वे अवश्य नाश करें। ऐसी
उल्टी प्रवृत्ति सम्यग्दर्शन के पुजारी कर ही नहीं सकते। जो लोग ऐसी उल्टी
प्रवृत्ति करते हैं,
वे सम्यग्दर्शनी के वेष में रहते हुए भी हृदय से
मिथ्यादर्शन के ही पुजारी हैं, यह निःसंशय बात है। ऐसी आत्माएं अपना अहित
करने के साथ अनेक भद्रिक आत्माओं के हित का संहार करने वाली घोर प्रवृत्ति करती
है। आज के कृत्रिम समानतावाद के प्रचार ने इस आवश्यक भावना का ही संहार किया है।
मर्यादा मात्र का हेतुपूर्वक नाश करने के लिए ही आज की सुधारक हिलचाल है। ऐसी
हिलचाल के योग से ही आज यह भयंकर दोष प्लैग की भाँति फैल रहा है, इस
दोष के नाश के लिए अभी नहीं तो अवसर आने पर भी समझदारों को भगीरथ प्रयत्न करने ही
पडेंगे। जो प्रयत्न करने ही पडने वाले हैं, वे आज से नहीं हो रहे, यह
दुर्भाग्यपूर्ण है,
परंतु समझदार माने जाने वालों की भी आंखें न खुलें, वहां
उपाय क्या?
आज ढोंग,
दम्भ, प्रपंच इतना बढा है कि जिसकी सीमा ही
नहीं। यहां कुछ और, वहां कुछ और! वाणी, वचन
और बर्ताव में मेल ही नहीं। यह आज की दशा है। इसीलिए ही मैं कहता हूं कि ‘हम
गुण के रागी अवश्य हैं,
परन्तु गुणाभास के तो कट्टर विरोधी ही हैं।’ हम
जहां त्याग देखें,
वहां हमें आनंद अवश्य हो, परंतु वह त्याग यदि
सन्मार्ग पर हो तो ही उस त्याग के उपासक की प्रशंसा करें, अन्यथा
सत्य को सत्य के रूप में जाहिर करें और उसके लिए समय अनुकूल न हो तो मौन भी रहें। ‘कौनसा
त्यागी प्रशंसापात्र?’
यह बात गुणानुरागी को अवश्य सोचनी चाहिए। आज इस बात को नहीं
सोचने वाला आसानी से गुणाभास का प्रशंसक बन जाए वैसा माहौल है।
सम्यग्दृष्टि की एक नवकारशी को मिथ्यामतियों का हजारों वर्ष का तप भी नहीं
पहुंच सकता, यह एक निर्विवाद बात है। इसलिए मैं अनुरोध करता हूं कि कैसी भी स्थिति में
प्रभुमार्ग से हटा नहीं जाए, उसकी सावधानी रखना सीखें।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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