आस्तिक्य सम्यक्त्व का पांचवा लिंग है। अस्तित्व को मानने वाला जो कोई हो, उसे
आस्तिक कहते हैं। आस्तिकता के भाव को आस्तिक्य कहा जाता है। यहां पहली बात तो यह
है कि अस्तित्व को मानने की जो बात कही गई है, उसमें किसके अस्तित्व को
मानना है? जो-जो वस्तु जिस-जिस स्वरूप में है, उसे उसी स्वरूप में ही
अस्तित्व में मानना चाहिए। जैसे कि जीव के अस्तित्व को माना, परंतु
जीव एक ही है, ऐसा मानो तो?
अनंत जीव हैं, ऐसा भी माना, परंतु
जीव में रहे हुए पारिणामिक स्वभाव को न माने तो? ऐसी तो जीव-अजीव आदि
तत्त्वों से सम्बंधित बहुत-सी बातें हैं और जीव-अजीवादि के स्वरूप के विषय में ‘आस्तिक’ माने
जाने वाले दर्शनों के मंतव्यों में भी परस्पर अंतर्विरोध बहुत है। तो शुद्ध
आस्तिक्य किसे कहा जाए?
जीव-अजीव आदि तत्त्वों के अस्तित्व मात्र को मानने से शुद्ध आस्तिक्य है, ऐसा
नहीं माना जा सकता। परंतु जीव-अजीव आदि तत्त्व जैसे-जैसे स्वरूप वाले हैं, उस-उस
स्वरूप वाले जीव-अजीव आदि तत्त्वों को मानना, यह शुद्ध आस्तिक्य है। और
जीव-अजीव आदि तत्त्वों का सही स्वरूप कौन बता सकता है? परमज्ञानी
अरिहंत देव ही उसका सही और सच्चा विवेचन कर सकते हैं न? क्योंकि
वे ही केवलज्ञानी हैं,
आप और हम वह सब नहीं देख सकते, नहीं
जान सकते, इसलिए उन परम ज्ञानियों द्वारा अनुभूत तत्त्व स्वरूप के प्रति सही श्रद्धान हो, यह
आस्तिक्य।
‘जो
वीतराग नहीं होता,
वह सर्वज्ञ तो हो ही नहीं सकता और जो सर्वज्ञ नहीं होता, वह
प्रत्येक पदार्थ के प्रत्येक स्वरूप को कैसे जान सकता है।’ आँख
की रोशनी भी अच्छी हो और निर्मल पानी हथेली में रहा हुआ हो, उस
निर्मल पानी को जितनी अच्छी तरह देखा जा सकता है, उससे भी अधिक अच्छी
तरह सर्वज्ञ प्रत्येक वस्तु को देख सकते हैं। चर्मचक्षु से देखने वाले भूल कर सकते
हैं, परंतु ज्ञानचक्षु से देखने वाले सर्वज्ञ तनिक भी भूल नहीं कर सकते।
सर्वज्ञ तो चर्मचक्षु से देखे जा सकने वाले और चर्मचक्षुओं से नहीं देखे जा
सकने वाले रूपी और अरूपी सर्व पदार्थों के सर्व भावों को अपने ज्ञान से जान सकते
हैं। जीव है,
जीव के साथ कर्म लगा हुआ है, इत्यादि अनुमान से
जाने जा सकते हैं,
परंतु चर्मचक्षुओं से उन्हें नहीं जाना जा सकता। इन सबको
सर्वज्ञ सर्वभाव से जान सकते हैं। अतः विवेकी जीव श्री सर्वज्ञ भगवंतों के वचनों
पर और उन वचनों के अनुकूल वचनों पर ही श्रद्धावाला बनता है। यह है शुद्ध आस्तिक्य।
ऐसा शुद्ध आस्तिक्य सम्यग्दृष्टि में ही संभव है। इसलिए ‘वही
सत्य है और वही निःशंक मानने योग्य है, जो भगवान श्री जिनेश्वर देवों
ने प्ररूपित किया है’,
ऐसी मान्यता रूप शुभ परिणाम को सम्यक्त्व कहा जाता है।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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