बुधवार, 8 जनवरी 2014

श्री जिनेश्वर देवों के वचनों में शंकित न हों


सम्यग्दर्शन को दूषित करने वाले दोषों में सबसे पहला दोष है शंका। इस शंका नामक दोष का साम्राज्य तो आज चारों ओर फैला हुआ देखने को मिलता है। इस शंका के साम्राज्य में कांक्षाका आगमन तो अवश्य होगा। उसके आने के बाद विचिकित्साका आगमन होगा। उसके बाद मिथ्यामति लोगों के गुणों का वर्णनभी होगा, साथ ही उनका परिचयभी बढेगा ही। गहराई से सोचें तो समझ में आ सकता है कि प्रधानतः कांक्षा आदि दोषों का मूल शंका है। श्री जिनेश्वर देव के वचनों में शंका उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों से कल्याणकामी आत्माओं को प्रयत्नपूर्वक दूर रहना चाहिए।

अनंतज्ञानियों द्वारा निर्दिष्ट सभी तथ्यों के प्रति आत्मा को निःशंक बनाना चाहिए। क्योंकि ऐसा किए बिना सूक्ष्मतम एवं अतीन्द्रिय तथा केवल आगमगम्य पदार्थों में ही आत्मा शंकित हुए बिना रहे, ऐसा नहीं है और एक भी वस्तु में शंका आत्मकल्याण की साधना में परम साधनरूप सम्यग्दर्शन को मलिन किए बिना नहीं रहेगी। यह बात अवश्य संभवित है कि जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित कई बातों को समझने के हेतु शंका करनी पड सकती है। इस प्रकार समझने के उद्देश्य से की गई शंका जिज्ञासारूप होने के कारण वह दोषरूप नहीं है; किन्तु वह शंका अवश्य दोषरूप है जो कि जिनेश्वर देवों के वचन में ही आत्मा को शंकित बनाए। इसलिए किसी भी प्रकार कल्याणार्थी आत्मा के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी आत्मा को ऐसी स्थिति में रखे ही नहीं कि जिससे अपनी आत्मा महान उपकारी एवं असत्य के कारणरूप रागादिक सभी दोषों को पूर्णतः नष्ट करने वाले श्री जिनेश्वर देवों के वचनों में शंकित हो जाए।

श्री जिनेश्वर देवों में व्यक्ति शंकित न हो, ऐसा तभी संभव है, जबकि अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वर देवों के प्रति संपूर्ण विश्वास उत्पन्न हो जाए। इसका कारण यह है कि किसी भी छद्मस्थ आत्मा के लिए अनंतज्ञानियों द्वारा प्ररूपित प्रत्येक वस्तु प्रत्यक्ष हो नहीं सकती है। इस वजह से जो आत्माएं प्रत्यक्ष वस्तु के अतिरिक्त किसी वस्तु में विश्वास नहीं रखतीं, उतना ही नहीं, वरन् जिन आत्माओं के पास आगमों का अनुसरण करनेवाली युक्तियों को समझने की भी क्षमता न हो, उनके मन में अवश्य शंकाएं होती रहती हैं और फिर अगर ये शंकाएं निरंतर बनी ही रहें तो परिणाम यही आएगा कि बुद्धि में जो बात उतरती नहीं, वह कैसे संभव हो सकती है?’ यह जो मान्यता स्थिर हो गई, उसी का नाम शंका है। शंका का जन्म होने पर मिथ्यात्व आता है और फिर उन वचनों के प्रति सद्भाव नहीं जागता और इसके अभाव में जो समझ में नहीं आता या हृदय जिसको स्वीकार नहीं करता है, उसे कैसे मान लें’, ऐसा प्रश्न उपस्थित होता है। यह मिथ्यात्व के द्वार खोलदेता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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