बुधवार, 15 जनवरी 2014

केवल मूल सूत्र को ही मानने से नहीं चलेगा


तत्त्व नव हैं और उनकी भी परस्पर संकलना है; इसलिए उसमें का एक भी तत्त्व न मानें तो सारी ही गाडी रुक जाए। जिनके कथन में परस्पर असंबद्धपना हो उनकी बात अलग है, परंतु ऐसी असंबद्धतायुक्त बात तो अज्ञानी ही बोलते हैं, संपूर्ण ज्ञानीजन या संपूर्ण ज्ञानी के अनुयायी तो ऐसा बोल ही नहीं सकते।

इसलिए ही ऐसे ज्ञानियों की बातें आगे-पीछे के वाक्यों का सम्बन्ध रखने से ही समझी जा सकती है, क्योंकि ज्ञानी जो बोलते हैं, वह वस्तु स्वरूप को लक्ष्य करके ही बोलते हैं। इससे स्पष्ट है कि ज्ञानियों द्वारा प्ररूपित किए हुए नव तत्त्वों में से एक तत्त्व न माने, वे तो सुश्रद्धा के भाजन बन ही नहीं सकते हैं।

नव तत्त्वों में से आठ तत्त्व पसन्द आए और एक न आए तो भी शास्त्र कहते हैं कि वास्तव में उसे एक भी पसन्द नहीं आया है, इसलिए वह सम्यग्दृष्टि नहीं, अपितु मिथ्यादृष्टि ही है; इससे यह स्पष्ट है कि कोई ऐसा कहे कि कंदमूल में अनंत जीवों का अस्तित्व मानूं, परंतु पानी में असंख्यात जीव न मानूं’, तो यह श्री जैनशासन में चल ही नहीं सकता; इसी कारण से उपकारी पुरुष आदेश देते हैं कि प्रभुशासन की आराधना करने की इच्छावाली आत्मा को श्री जिनशासन के, श्री जिनेश्वर देव के शासन के एक-एक अक्षर को हृदयपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। अन्यथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति सम्भव ही नहीं है, अपितु मिथ्यात्व की प्राप्ति ही सम्भव है। इसी कारण से उपकारकों ने फरमाया कि सूत्र के एक भी अक्षर को जो न माने वह मिथ्यादृष्टि है,’ क्योंकि उसमें एक भी अक्षर ऐसा नहीं होता कि जो अरुचि करने योग्य रहा हो।

सूत्र कौन से? सारे पैंतालीस आगम, पंचांगी के साथ। पंचांगी में से चार मूल का ही विस्तार है। इसलिए केवल मूल ही मानूं, परंतु दूसरा न मानूं’, ऐसा कहने वाले को उसकी छाया में भी बैठने का या उसके फल खाने का और उसकी शीतलता ग्रहण करने का भी अधिकार नहीं है। वह चाहे तो भले ही भीतर मूल में जाए, बाकी छाया, टहनी, पंखुडियाँ इत्यादि और फल के लिए तो वह अनाधिकारी ही है। मूल में फल हैं, परंतु मूल मुंह में यदि रखें तो फल थोडे ही मुँह में आएंगे? नहीं ही। इसीलिए ही अकेले मूल को ही मानने वाले को वृक्ष की छाया में शीतलता पाने का और फल को पाने का अधिकार नहीं है। निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीका आदि भी कोई पराए नहीं हैं।

मूल तो थोडा ही स्थान रोकता है और तना, शाखा, डाली, पत्ते आदि तो विशाल स्थान रोकते हैं। मूल में यह सब था या नहीं? था ही! मूल में यह सब था, इसीलिए ही बाहर आया, यह सब तो जिसे बाहर निकालना आए, वही निकाल सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें