सब दोषों में रस उत्पन्न करने वाला महादोष मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व, एक
ऐसा दोष है जो दूसरे दोषों को जोरदार बना देता है। यदि यह मंद पड जाता है, तो
दूसरे दोष स्वाभाविक ही मंद पड जाते हैं। इसलिए, ज्ञानियों ने
मिथ्यात्व को सब पापों का बाप कहा है। सत्रह ही पाप स्थान मुख्य रूप से इस
अठारहवें पापस्थानक के आधार से जीवित हैं। यदि यह एक महापाप चला जाता है तो फिर
सत्रह में से एक भी पाप लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकता। आज मिथ्यात्व के सम्बंध
में जैन समाज में भी कितनी अधिक उपेक्षा आ गई है? इस मिथ्यात्व को छोडे
बिना वस्तुतः एक भी दोष को नहीं छोडा जा सकता।
मिथ्यात्व,
बहुत भयंकर कोटि का पाप है। हिंसादि पापों से तो अभव्य और
दुर्भव्य भी बहुत अंश में पीछे हट सकते हैं। अभव्यों के लिए और दुर्भव्यों के लिए, द्रव्य-चारित्र
का निषेध नहीं किया गया है। यह कोई असंभव बात नहीं है कि अभव्य और दुर्भव्य
सर्वविरति की दीक्षा को ग्रहण करें और उसका पालन भी इस रीति से करें कि अन्यों को
कदाचित् ऐसा भी लगे कि ये गजब का संयम पालन करते हैं। घोर संयम और घोर तप अभव्यों
और दुर्भव्यों के लिए असंभव नहीं है; परंतु इस मिथ्यात्व नामक
महापाप का त्याग तो केवल भव्यात्मा ही कर सकते हैं। तात्पर्य यह है कि न तो अभव्य
जीव मिथ्यात्व के पाप को छोड सकते हैं और न दुर्भव्य मिथ्यात्व को छोड सकते हैं।
केवल भव्यात्मा ही मिथ्यात्व के पाप को छोडकर सम्यग्दर्शन रूप धर्म को प्राप्त कर
सकते हैं।
मिथ्यात्व जैसे मूढता को पैदा करने वाला है, वैसे सम्यक्त्व धर्म
के रस को पैदा करने वाला है। सम्यक्त्व की मौजूदगी में दोष भी वैसा फल नहीं दे
सकते, जैसा कि वे मिथ्यात्व की मौजूदगी में दे सकते हैं। इसी तरह मिथ्यात्व की
मौजूदगी में गुण भी वैसा फल नहीं दे सकते, जैसा कि वे सम्यक्त्व की
मौजूदगी में दे सकते हैं। अभव्य और दुर्भव्य जब घोर संयम का पालन करते हैं और घोर
तप का आचरण करते हैं,
उस समय यदि उनमें मिथ्यात्व की मौजूदगी न हो और सम्यक्त्व
की मौजूदगी हो तो वह संयम और तप उन्हें मुक्ति दिलाए बिना नहीं रहें; परंतु
एक मात्र मिथ्यात्व की मौजूदगी उनको उस संयम के पालन और तप के सेवन के वास्तविक फल
से वंचित रखती है। सम्यक्त्व की मौजूदगी में अविरति के योग से सेवन किए जाते
महापाप भी आत्मा को दुर्गति में घसीट ले जाने में समर्थ नहीं हो सकते।
सम्यग्दृष्टि आत्मा जो अल्प या अधिक प्रमाण में धर्म का आचरण करते हैं, वह
धर्म उनके मोक्ष में कारणभूत बनता है। यह बात यदि ठीक ढंग से समझ में आ जाए तो
मिथ्यात्व को छोडने और सम्यक्त्व को प्रकट करने का प्रयत्न करने का मन हुए बिना
नहीं रह सकता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें