रविवार, 12 जनवरी 2014

अगर समझें तो शंका के लिए कोई स्थान ही नहीं है


उपकारियों ने शंका उत्पन्न होने के पांच कारण बताए हैं-

1. मति की दुर्बलता।

2. उस प्रकार के (अधिकारी-समर्थ) आचार्य का विरह।

3. ज्ञेय वस्तु की गहनता।

4. ज्ञानावरणीय कर्म का उदय।

5. हेतु (युक्ति) और उदाहरण (दृष्टांत) का असंभव।

इन पांच कारणों से समझा जा सकता है कि यदि श्री सर्वज्ञ परमात्मा के शासन में से कोई बात हम से समझी नहीं जा सके तो प्रथम तो हमें यही चिंतन करना चाहिए कि हमारी मति की दुर्बलता कहां और अनंतज्ञानी के ज्ञान की शक्ति कहां?’ परन्तु आज तो यह स्थिति है कि, ‘कैसी हमारी मति और वह फिर कितनी दुर्बल?’ सम्यक्त्व को नहीं पाए हुए मार्गानुसारी आत्मा की भी मान्यता कैसी हो, यह दर्शाते हुए उपकारीजन कहते हैं कि-

शास्त्र घणां मति थोडली, शिष्ट कहे ते प्रमाण।

शास्त्र गहन हैं और मति अल्प है, इसलिए शिष्टजन जो कहें सो प्रमाण।

जबकि अभी अपने आपको परम सम्यग्दृष्टि मानने का दावा रखने वाले भी श्री सर्वज्ञदेव के शासन को अपनी मति से कलुषित करने का निष्फल, परन्तु कूट प्रयत्न करते हैं, यह उनकी नीति कितनी कुटिल है, यह दर्शाता है।

इसी प्रकार शंका से बचने के लिए दूसरा चितन यह करना है कि तत्प्रकार के समर्थ आचार्यदेवों के अभाव से भी वस्तु तद्रूप से समझी नहीं जा सकती है, इसलिए वस्तु ही नहीं है, ऐसा हो नहीं सकता।

इसी प्रकार से मान लीजिए कि मति की दुर्बलता भी न हो और ज्ञानी आचार्य का संयोग भी हो, फिर भी ज्ञेय पदार्थों की गहनता के प्रभाव से समझा नहीं जा सके ऐसा भी हो सकता है।हम शास्त्रों द्वारा जानते हैं कि प्रभुशासन के अंतिम श्रुत केवली भगवानश्री स्थूलिभद्रजी महाराजा के साथ पांच सौ मुनिवर अध्ययनार्थ पधारे थे, परंतु एक भगवानश्री स्थूलिभद्रजी को छोडकर सारे ही मति की मंदता और ज्ञेय की गहनता के प्रताप से एक के बाद एक आगे नहीं बढ सके और अकेले श्री स्थूलिभद्रजी महाराजा ही अंत तक टिके थे। ज्ञेय की गहनता ही उसमें मुख्य कारणरूप थी। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म का उदय और हेतु तथा उदाहरण का असंभव भी प्रभुशासन को नहीं समझने में कारणभूत हो जाता है। इन कारणों के प्रताप से सच्ची वस्तु भी समझने में न आए, इसलिए वस्तु ही नहीं है’, ऐसा कैसे कहा जा सकता है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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