गुरुवार, 16 जनवरी 2014

सूत्र का एक अक्षर भी जिसे पसंद न आए वह मिथ्यादृष्टि


मूल को कहां रोपित करना, कैसे रोपित करना, उसे क्या पिलाना एवं कैसे पिलाना, यह आपको पता चले या किसान को? जैसे फल आदि के मूल को दुनिया के किसान पल्लवित करते हैं, वैसे ही इस मूल को पूर्वाचार्यों ने पल्लवित किया है। आप भाग्यवान हो तो उसके ये फल खाएं। परंतु, जो लोग यह कहते हैं कि जिसे हम पल्लवित न कर सकें, उसे हम कैसे मानें?’ उन उल्टी मति के ठेकेदारों को पता नहीं है कि जिनमें ताकत हो, वही पल्लवित कर सकते हैं और जिनमें ऐसी ताकत थी, उन्होंने ही पल्लवित किया है।

जो अकेले मूल को पकडकर बैठे हैं, उन्हें हम कहते हैं कि आप लोग अकेले मूल शब्दों को पकडकर बैठे हो, इसीलिए ही तो परस्पर असंगत अर्थ करते हो और उसी कारण से सच्ची वस्तु कह सकने के बजाय गप्प हांकते हो। बजाय इसके तो मूल को जितना संगत हो, उतना सबकुछ ही मानो न? जो-जो मूल को संगत न लगता हो, उसे सिद्ध करो। ऐसी ताकत अगर नहीं है तो फिर महापुरुषों द्वारा कही हुई बातों को प्रेम से स्वीकार करलो। अन्यथा मिथ्यादृष्टि हो ही, क्योंकि सूत्र में कहा गया एक अक्षर अर्थात् मूल, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका आदि का एक भी अक्षर जिसे पसन्द न आए, वह मिथ्यादृष्टि है’, ऐसा महाज्ञानी फरमाते हैं।

वस्तु स्वरूप में तो मूल और उसके साथ के चारों अंग अर्थात् पांचों ही प्रारम्भ से ही हैं। क्योंकि, ‘1. मूल अर्थात् तो मूल, 2. दूसरा अंग निर्युक्ति अर्थात् सूत्र में लोलीभूत हो रहे अर्थों को गंभीरता से समझाने वाली गाथाएं, 3. तीसरा अंग भाष्य अर्थात् उसके ही अर्थ को गंभीर और सुविशद शब्दों में कहने वाला, 4. चौथा अंग टीका अर्थात् उसके ही अर्थ का विस्तार से विवेचन करने वाला तथा 5. पांचवां अंग चूर्णि, अर्थात् उसके ही अर्थ का प्राकृत भाषा में विवेचन करने वाला।पंचांगी का स्वरूप ही यह है। इसलिए उसमें कोई भी नवीनता नहीं है। अर्थात् प्रभुशासन की खूबी ही यह है कि उसमें कोई भी नवीन’, ‘अपनाकहने को चाहता ही नहीं है, क्योंकि उस शासन को पाकर लेखक बने हुए सारे ही भवभीरु होने से, कोई भी श्री तीर्थंकर देवों के कथन से विरुद्ध एक भी अक्षर बोलने वाले नहीं होते हैं।

श्री गणधर देव भी प्रभु के पास से अर्थ प्राप्त करने के पश्चात् ही द्वादशांगी की रचना करते हैं और वे तारक वाचना देते हुए भी प्रथम मूल, बाद में निर्युक्ति और तत्पश्चात् सब कुछ देते हैं, क्योंकि वाचना का क्रम यही है। इसलिए जैसे मूल प्रभु के कथन का अनुसरण करने वाला है, वैसे बाकी के चार भी प्रभु के कथन का अनुसरण करने वाले ही हैं और उसके अतिरिक्त भी जो पंचांगी से अविरुद्ध हो, वे सारे ही शास्त्र प्रमाणरुप हैं, क्योंकि उसमें किसी के घर का कुछ भी नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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