रविवार, 19 जनवरी 2014

अनुकूलता की भूख में से कांक्षा का जन्म!


सम्यक्त्व का दूसरा दोष है कांक्षाकांक्षाअर्थात् अन्य-अन्य दर्शनों का ग्रह। यह कांक्षा दो प्रकार की है। एक सर्वविषयाऔर दूसरी देशविषया। सर्वविषया अर्थात् सारे ही पाखण्डियों के धर्म चाहने योग्य और देशविषया अर्थात् एक अथवा अनेक दर्शन का विषय करने वाली। जैसे कि सुगत ने स्नान, अन्न, पान-आच्छादन और शयन आदि के सुख का अनुभव करने के द्वारा अक्लेशकारी धर्म का भिक्षुओं के लिए उपदेश दिया है। कहा है कि-कोमल शय्या में शयन करना, प्रातःकाल में उठकर पीने योग्य वस्तु (राबडी) का पान करना, मध्यान्ह काल में भोजन करना, अपरान्हकाल में भी सरबत-रस का पान करना और मध्यरात्रि को द्राक्षाखंड एवं शर्करा का उपयोग करना’, इतना करते हुए भी शाक्यसिह (बुद्ध) ने अंत में मोक्ष देखा है, अर्थात् मोक्ष के लिए तप आदि की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार बौद्ध शासन कहता है; वह भी अघटित नहीं है, किन्तु घटित ही है एवं परिव्राजक, भौत और ब्राह्मण विषयों का उपभोग करते हुए ही परलोक में भी सुख के साथी बनते हैं, अर्थात् सुख के भोक्ता बनते हैं, इस कारण से वह धर्म भी बहुत अच्छा है।

इस प्रकार की कांक्षा भी परमार्थ दृष्टि से सोचें तो भगवानश्री अरिहंत परमात्मा द्वारा प्रणीत आगमों पर अविश्वास पैदा करने वाली है, इस कारण से कांक्षानाम का दोष भी सम्यक्त्व को दूषित करने वाला है।

जिसमें आस्तिक्य अकंप्य (अचल) हो, उसे यह कांक्षा दोष बाधा नहीं डाल सकता है। श्री जिनेश्वर देवों ने जो प्रणीत किया है, उसमें परिवर्तन हो ही नहीं।ऐसे दृढ निश्चय वाले को कांक्षा दोष सता नहीं सकता। कांक्षा से बचने के लिए भगवान का मार्ग कठोर है’, इतने भर से प्रभुमार्ग में चलचित्त न बन जाएं, उसकी पूरी सावधानी रखनी चाहिए। दुनिया सुविधा-भोग की ओर जल्दी आकृष्ट होती है।

जगत में अच्छा छोडकर गलत धारण करने की इच्छा किसे हो? बुद्ध ने साधुओं के लिए बिना कष्ट का मार्ग भी निकाला ही न? इसलिए समझें कि बिना कष्ट के होने वाले धर्म की ओर दुनिया सहज ही आकर्षित होती है, अन्य दर्शन का आकर्षण होने का प्रधान हेतु कष्ट का अभाव होना है। जहां शारीरिक तकलीफ न हो, बिना कष्ट के धर्म होता है, ऐसा कहा जाता हो और बिना मेहनत से धर्मी में खप जाना होता हो, वहां ढेर के ढेर धर्मी मिल जाएं। मुक्ति तो दोनों धर्म कहते हैं, अतः आसानी से जहां मुक्ति मिले, वह धर्म क्यों नहीं धारण करना? ऐसी भावना तुरन्त आती है। फिर उसमें सारासार का विचार करने जैसा नहीं रहता, अपितु बुद्धिमान सहज सोच सकता है कि थोडी मेहनत से ऊंचा साध्य कैसे साधा जा सके?’ इस प्रकार यह कांक्षा मिथ्यात्व में धकेलने का काम करती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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