शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

देखा-जाना सब कुछ कहा नहीं जा सकता


सर्वज्ञ कितने ही उपकारी हों, फिर भी जिन पदार्थों का ज्ञान सर्वज्ञ होने के बाद ही होना संभव है, ऐसे पदार्थ आपको सर्वज्ञ होने के पूर्व ही सर्वज्ञ देव कैसे बता सकते हैं? जो वाणी का विषय न बन सके, उसे शक्ति-सम्पन्न भी कैसे कहे? अपने स्वयं की चिंता के स्वरूप को कभी-कभी आप स्वयं भी नहीं समझ सकते हैं, ऐसा होता है या नहीं? ‘कुछ होता है’, ऐसा कहते हैं, लेकिन क्या होता है’, यह नहीं समझा सकते। बडे-बडे निष्णात डॉक्टर भी अनेक रोगों से पीड़ित हों पर समझा न सकें, ऐसा भी होता है। कोई कहे कि एक चित्र मैंने ऐसा देखा कि वहां से हटने की इच्छा ही नहीं होती थी।उसे अगर कोई पूछे कि ऐसा उसने उस चित्र में क्या देखा तो वह कहेगा, “यह तो देखने वाला ही समझ सकता है। उस आकर्षण-शक्ति को गठित करने का एवं उसका वर्णन करने का सामर्थ्य मुझ में नहीं है। आप स्वयं अनुभव कर लीजिए।

तीनों लोक में स्थित सर्व पदार्थ, उनके अनंत गुण और अनंत पर्याय, अनंत भूतकाल, अनंत भविष्यकाल तथा वर्तमानकाल के समय-समय पर परिवर्तित होते गुणपर्यायों को विषय बनाकर एक ही समय में केवलज्ञानी महर्षि देख सकते हैं, जान सकते हैं, लेकिन आप लोगों के समक्ष वे कहें कैसे? ज्ञान अनंत और आयुष्य सीमित। अधिक से अधिक आयुष्य भी देशोनक्रोड पूर्व का ही है। वे कैसे कह सकते हैं?

अनंत अंकों की गिनती करने के लिए आयुष्य भी कितना होना चाहिए? एक, दो, इस प्रकार क्रम से गिनती हो ना? एक मिनट में साठ शब्द बोले जा सकते हैं, अधिक त्वरित गति से अगर बोलें तो सौ तक बोल सकते हैं। चौदह पूर्वी अधिक बोल सकेंगे, फिर भी कहां तक? अक्षर एक और अर्थ अनंत। एक गाथा अगर केवलज्ञानी सुनाने लगें तो हमारे अनेक जन्म पूर्ण हो जाएं, क्योंकि अनंतज्ञान की सीमा बांधी नहीं जा सकती। वस्तु तो हो, लेकिन वाणी के विषय में न आ सके, उसे कैसे कहा जा सकता है? अनंतज्ञानी के लिए वाणी के विषय में आने वाले, कहने योग्य पदार्थों से कहीं अधिक पदार्थ वाणी के विषय में नहीं आने वाले, कहने योग्य न हों, ऐसे पदार्थ हैं। इसीलिए ही जो देखा है, समझा है, वह सबकुछ वे कह न सके, ऐसा भी हो सकता है।

जो लोग कहते हैं कि अनंतज्ञानी तो वे ही हैं, जो सब कुछ शब्दों के द्वारा बता सकें। उन्हें मैं कहता हूं कि सब कुछ कह बताने का दंभ जो करता है, वह तो महा अज्ञानी है।अनंतज्ञानी तो कहते हैं कि शब्दातीत जो हो, उसे कहा ही नहीं जा सकता, वह तो अकथ्य है,’ उसमें से भी जितना कहना उचित है, उतना कहकर वे हमें उपकृत करते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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