बुधवार, 22 जनवरी 2014

सांसारिक कामना से धर्म न करें?


सम्यग्दर्शन का तीसरा दोष विचिकित्सा भी ऐसा है कि किसी भी धर्मक्रिया में चित्त की स्थिरता को टिकने नहीं दे। फल के अर्थी जीवात्मा को फल की प्राप्ति के विषय में हो रही शंका, धर्म की आराधना में चित्त को विचलित किए बिना रहे ही कैसे? फल में चित्त-विचलित करने वाले इस विचिकित्सा नाम के दोष के योग से धर्मक्रिया में एकाग्रचित्तता नहीं रह सकती और बात भी सच्ची ही है कि जहां फल की प्राप्ति में शंका हो, वहां क्रिया में स्थिरता आए कैसे?

इसी कारण से परमोपकारी ज्ञानी कहते हैं कि जगत के किसी भी फल की अपेक्षा के बिना धर्म करना चाहिए। सांसारिक (भौतिक) फल की आशा हुई कि धर्म डिगा समझें, क्योंकि उस आशा के परिणाम स्वरूप धर्म-क्रियाओं पर अविश्वास आता है, शास्त्रवचनों पर अप्रतीति होती है, धर्मक्रिया में एकाग्रचित्तता आ नहीं सकती और चित्त में विप्लव हुए बिना भी नहीं रहता।

इन सब तथ्यों के आधार पर समझें कि दुनिया के सुख की इच्छा से धर्म नहीं करना चाहिए।यदि उस प्रकार धर्म किया, तो संदेह अवश्य होगा। धर्म करने से इस लोक में कष्ट नहीं होता, परलोक में शांति मिलती है।ऐसा शास्त्र ने कहा है, इस आधार पर इस लोक में कष्ट नहीं होता’, इस वचन को ही पकडकर, धर्म करने लगा और पूर्व के अशुभोदय से कदाचित् कष्ट आया कि तुरन्त मन में विचार होगा कि धर्म से इस लोक का कष्ट तो मिटता नहीं है, फिर परलोक की तो बात ही क्या?’ ‘दुःख क्यों आता है’, इसका विचार किए बिना धर्म पर सीधा ही दोषारोपण करे और कह दे कि जो धर्म इन कष्टों को भी दूर नहीं करता, वह फिर राज्य, रिद्धि, स्वर्ग और मुक्तिकिस प्रकार दे सकता है?”

पुद्गलानंदी आत्माएं अशुभ के उदय से आए हुए कष्टों को भी धर्म के नाम ही चढाएं तो कोई आश्चर्य नहीं। ऐसी आत्माएं ऐसा ही मानती है कि चाहे जैसा पाप किया हो तो भी भगवान को मात्र हाथ जोडें कि कष्ट जाना ही चाहिए।परंतु ऐसे किस प्रकार जाए? सचमुच में धर्म किसलिए और किस प्रकार सेवन करना चाहिए, यह समझ में न आए और फल की शंका होती ही रहे, तब तक विचिकित्सा दोष बैठा ही है और उस दोष की हाजिरी में आराधना में अंतस् की एकाग्रचित्तता होना, यह प्रायः असम्भव है। ऐसे धर्मी लोग बहुत से हैं कि जो नित्य धर्म करें, परन्तु थोडी-सी विपत्ति आए कि तुरन्त उनके मन में विचार आ जाए कि, ‘धर्म में क्या है?’ इसका कारण ही यह है कि, ‘उन्होंने शुभ परिणाम के अभाव से धर्मक्रिया का ध्येय संवर और निर्जरा और परिणाम में मुक्ति नहीं रखकर दुनियादारी ही रखी थी।ऐसा उल्टा ध्येय रखे, उसका परिणाम भी वही आए, इसमें आश्चर्य भी क्या? धर्म करने वाले का ध्येय यह नहीं होना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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