शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

दया-दान का निषेध महापाप है !


दीन-दुःखियों की अनुकम्पा का निषेध करना, यह भयंकर पाप है। आँखों के सामने दीन-दुःखियों को देखकर अनुकम्पा का भाव उसी दशा में प्रकट नहीं होता, जब हृदय कठोर और क्रूर हो। हृदय को कठोर बनाए बिना, क्रूरता आए बिना, ऐसा नहीं हो सकता कि दीन-दुःखियों को देखकर अनुकम्पा का भाव प्रकट न हो। आप ऐसे मनुष्यों को ढूंढो, जिनको दुःखी जीवों को देखते ही अनुकम्पा का भाव पैदा न हो और बाद में उनका परिचय करो तो आपको लगेगा कि ऐसे लोगों का हृदय कोमल नहीं, किन्तु कठोर है। आप अपने स्वयं के उदाहरण से कदाचित अनुमान कर सकेंगे; आपके हृदय में कठोरता बिना, आप दीन-दुःखियों की उपेक्षा कर सकते हैं क्या? ऐसी अनुकम्पा का निषेध भी आज कईयों की तरफ से किया जा रहा है और ऐसा निषेध करने वाले स्वयं को जैन के रूप में प्रसिद्ध भी करते हैं! इतना ही नहीं स्वयं को श्री जिनशासन के सच्चे धर्म की समझ प्रकट हुई है, अतः वे अनुकम्पा का निषेध करते हैं’, ऐसा भी वे कहते हैं।

आँखों के सामने दीन-दुःखी दिखें और उनके दुःख से दिल दयार्द्र न बने, ऐसा यदि आपने अपने लिए अनुभव किया हो, तो यह पता लगाइए कि उस समय लक्ष्मी के लोभ आदि ने आपके दिल को कठोर बनाया था या नहीं? इसलिए, दीन-दुःखियों की दया का निषेध करने वाले तो जिनका हृदय कोमल और स्निग्ध हो, उन्हें भी कठोर हृदय वाले बना देने का पाप करते हैं। अनुकम्पा के कारण परोपकार करने की इच्छा वाले कोमल हृदय वालों को धर्म-प्राप्ति सुलभ है और धर्म-प्राप्ति के बाद धर्माराधन भी सुलभ है। अनुकम्पा के भाव वाला ही अहिंसादि धर्म-कर्म के प्रति सहज ही रुचिवंत बनता है। धर्म पालन करने की सुंदर सावधानी भी अनुकम्पाशील जीवों में ही हो सकती है। इस कारण दया-दान का निषेध करने वाले वस्तुतः तो धर्म-प्राप्ति व धर्माराधन के एक प्रबल उपाय पर ही प्रहार करने का पाप करते हैं। दूसरों के दिलों को कठोर बनाने का पाप, धर्म-प्राप्ति तथा धर्माराधन के एक प्रबल उपाय पर प्रहार करने का पाप और तीसरा सबसे बडा घोर पाप तो यह कि श्री जिनवचन के नाम पर ही दया-दान का निषेध करके श्री जिनवचन से विपरीत प्ररूपणा करना और श्री जिनवचन के प्रति मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी जीवों में दुर्भाव पैदा करना है। अनुकम्पा का निषेध करने वाले ऐसे पापों का आचरण करते हैं। मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीवों को ऐसा लग जाता है कि ये लोग ऐसे भगवान को मानते हैं, जिन्होंने दीन-दुःखी जीवों की दया का भी निषेध किया है! यह कैसा धर्म और कैसा भगवान? अपनी भूल से किसी जीव में ऐसा भाव प्रकट हो, ऐसा अनजाने में भी हो जाए तो घोर पाप का कारण है, तो जानबूझकर ऐसा आचरण करना तो घोरातिघोर पाप का कारण हो, इसमें कोई आश्चर्य नहीं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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