गुरुवार, 23 जनवरी 2014

श्रद्धा में संदेह नहीं होता!


धर्म कौनसा सुख दे, कब दे, किस प्रकार सेवा करें तो उसमें सुख मिले, यह निश्चित करने की अत्यन्त ही आवश्यकता है। प्रभु शास्त्र तो चाहे जैसी अवस्था में भी धर्मी को सुखी ही करते हैं। यह सब कहने का कारण यह है कि धर्म करने वाले को अपनी मनोवृत्ति बदलनी पडेगी। आज के संसार-पिपासु तो कहते हैं कि पूजा करे और लक्ष्मी जल्दी क्यों न मिले?’ पूर्वकाल में तीव्र अंतराय बांधा है और तिलक करने से जल्दी लक्ष्मी मिलती है, ऐसा वे लोग मानते हैं, इतने भर से ही कैसे मिले? परंतु उन बेचारों को कहां पता है कि जब तक अंतराय टूटे नहीं, अशुभ का उदय हटे नहीं, तब तक धर्म वास्तविक रूप में बाह्य सुख की सामग्री दे नहीं सकता।

अनाथी मुनि को उपसर्ग-परीषह आए ही क्यों? गृहस्थ कैसा भी हो फिर भी पाप में बैठा है, परंतु मुनि तो धर्मी ही है न? भगवान श्री महावीरदेव को भी उपसर्ग-परीषह आए हैं, यह जानते हो न? श्री ढंढणकुमार मुनि एवं श्री मेतार्यमुनि आदि को भी उपसर्ग आए हैं न? यद्यपि तीव्र धर्म तथा तीव्र पाप का फल तुरंत भी मिलता है, परंतु अभी तो मैं इसलिए यह समझा रहा हूं कि जिससे धर्मक्रिया करते हुए, ज्ञानी प्ररूपित धर्म के फल के प्रति शंका न हो, धर्मवृत्ति विचलित न हो और परिणाम में श्री जिनेश्वर देव के मार्ग की श्रद्धा हटे नहीं। प्राणीमात्र को दोषों से बचाने का प्रयत्न करणीय है।

विचिकित्सा दोष सामान्य कक्षा के जीव में तुरन्त आता है। धर्म के स्वरूप को नहीं समझने वाले में शंका और कांक्षा की भांति विचिकित्सा भी बात-बात में आ जाती है।

उसे तो वीतराग की वीतरागता में और साधु की साधुता में भी शंका होती है। उसके प्रताप से बहुत से कहते हैं कि सेवा न फलित हो तो साधु काहे के? हम पैरों पडें, भक्ति करें, पैर दबाएं और हमारी दरिद्रता दूर न हो तो साधु काहे के? रोगी के पास साधु को लाएं और दर्दी अच्छा न हो सके तो वे साधु काहे के?’ सोचिए कि यह किस कारण से बोला जाता है? कहना ही होगा कि धर्म के स्वरूप की सही समझ नहीं होने से ही।

ज्ञानी पुरुष तो कहते हैं कि श्री वीतराग की सेवा कर के वीतराग बनना हो तो आत्मा के ऊपर के राग के बंधन हटाओ, उन तारक की भक्ति करो और उन तारक की आज्ञा जीवन में उतारो! आज्ञा का पूर्ण पालन हो तो कर्मक्षय हो और कर्मक्षय हो तो वीतरागता इत्यादि अपने आप ही प्रकट हो। आदर्शों को लाने के लिए श्रद्धा संपन्न बनना चाहिए। देव, गुरु, धर्म के प्रति अविचल श्रद्धा तब ही रहती है कि जब देव, गुरु और धर्म को उनके वास्तविक स्वरूप में समझा जाए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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