शंका आदि पांच अतिचारों के स्वरूप को समझने वाली और समझकर उससे अलग रहने के
लिए सावधानी रखने वाली आत्मा ही अपने सम्यक्त्व की सुरक्षा कर सकती है। श्री
जिनेश्वर देव,
जो कि राग, द्वेष और मोह आदि दोषों के क्षय से
सर्वश्रेष्ठ आप्त बने हैं,
उनके वचन में शंका करना, धर्मक्रिया के फल में शंकित
होना, साधुओं की जुगुप्सा रूप विचिकित्सा करना, पाखंडियों का परिचय करना और
पाखंडी लोगों की प्रशंसा करना, ये सब जिस प्रकार सम्यक्त्व की मर्यादा का
उल्लंघन कराते हैं,
उसी प्रकार कांक्षा भी सम्यक्त्व की मर्यादा का उल्लंघन
कराती है। ‘कांक्षा’
नाम के इस अतिचार का स्वरूप अगर ठीक समझ में आ जाए तो लोकोत्तर
मिथ्यात्व की और लौकिक मिथ्यात्व की उलझन अपने आप दूर हो सकती है। कांक्षा नाम के
इस अतिचार के प्रति अधिक ध्यान न देने के कारण लोकोत्तर मिथ्यात्व की गणना कहां
करनी, उसका समावेश किस अतिचार में करना, इस विषय में कुछ लोगों को
उलझन होती है।
इस द्विधा के कारण वे मानते हैं कि ‘इस लोक के पौद्गलिक सुख के
हेतु भी वीतरागदेव और सद्गुरु देव की तथा धर्म की उपासना करना, यह
लोकोत्तर मिथ्यात्व है,
ऐसा मानें तो श्री आचार्य भगवान आदि धर्म की रक्षा के हेतु
कायोत्सर्ग आदि जो करते हैं, उसे भी लोकोत्तर मिथ्यात्व मानना पडेगा।
लेकिन, ऐसा तो माना नहीं जा सकता, इसलिए ऐसी क्रियाओं को द्रव्य-क्रिया
मानना चाहिए,
पर लोकोत्तर मिथ्यात्व नहीं मानना चाहिए।’
इस प्रकार की अनेक कल्पनाएं कर के, अनेक विषयों में न लिखने
योग्य और न बोलने योग्य,
ऐसे लोगों के द्वारा लिखा और बोला जाता है और इससे अनेक
भद्रिक आत्माओं को द्विधा का अनुभव होता है। इसलिए कांक्षा नामक अतिचार को अच्छी
तरह से समझ लेना आवश्यक है। नयाभास से प्रवर्तित और उसी के कारण कुत्सित बने हुए
ऐसे अनेक परदर्शनों में से एक को या सर्व को, श्री जिनेश्वर देवों का दर्शन, जो
कि सभी सुनयों का समावेश अपने आप में करता है, उसे समान मानने की वृत्ति जिस
प्रकार ‘कांक्षा’
नामक अतिचार में ही समाविष्ट होती है, इस
प्रकार अनंत उपकारी प्ररूपित करते हैं कि-
इहलोक संबंधी तथा परलोक संबंधी सुखादि अर्थों की आकांक्षा करने वाली आत्मा को
भी कांक्षा दोष है,
ऐसा मानना अर्थात् ऐसी आत्मा को भी कांक्षा मानना अर्थात्
ऐसी आत्मा को कांक्षा दोष से दूषित मानना चाहिए, क्योंकि ऐसी कांक्षा
भी सम्यक्त्व के अतिचार रूप है। इसका कारण यह है कि ऐसी कांक्षा जिस वस्तु का श्री
तीर्थंकर देवों ने प्रतिषेध किया है, उसके आचरण स्वरूप है और उसी कारण
से ऐसी कांक्षा सम्यक्त्व के मालिन्य के हेतुभूत है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंअगर आप मेरी सहायता कर पाएं तो और होगा भी।