शनिवार, 11 जनवरी 2014

राग-द्वेष रहित आत्मा झूठ नहीं बोलती


राग एक दुर्गुण है। वह ज्ञान पर आवरण चढा देता है। आत्मा जब राग के अधीन बनती है, तब वह शिक्षा, संबंध, जाति, प्रतिष्ठा, दिशा सब कुछ भूल जाती है। राग और द्वेष ऐसे भयंकर शत्रु हैं कि उनके रहने तक आत्मा को संपूर्ण ज्ञान प्राप्त होता ही नहीं है। जिस प्रकार तीव्र रागी से सही और हितकारी बर्ताव की अपेक्षा नहीं की जा सकती, उसी प्रकार श्री वीतराग देव से गलत या अहितकर बर्ताव की आशा नहीं की जा सकती, क्योंकि असत्य के कारणभूत राग, द्वेष और मोह का नाश हो जाने के बाद असत्य का अस्तित्व टिक ही कैसे सकता है? श्री जिनेश्वर देव की आत्मा में इन तीनों दोषों का सर्वथा अभाव होता है, जिसके कारण उनके मुख से असत्य निकल ही नहीं सकता।

असत्य बोलने की हमारी जरा भी इच्छा न हो, फिर भी छद्मस्थता के योग से कभी बोल दिया जाए तो हमें सावधान रहना चाहिए, ऐसा हम मुनियों को कहा गया है। आगे कहा कि सोच समझकर बोलें’, क्योंकि असत्य न बोलने का नियम है, लेकिन रागादि शत्रु जीवित बैठे हैं। अगर सावधानी न रखी गई और असत्य वचन मुख से निकल गए तो कर्मों की पकड में आ जाएंगे, इसलिए सोच-समझकर ही बोलने की मुनियों के लिए भी आज्ञा है।

श्री जिनेश्वर देवों को तो कुछ सोचना ही नहीं है, क्योंकि उन परमतारक देव को कोई आवरण ही नहीं है। भूल की संभावना हो तभी सोचना आवश्यक होता है न? जगत उद्धारक प्रभु केवलज्ञान के आलोक में सब कुछ देखते हैं और जानते हैं, लेकिन उनमें से एक भी वस्तु पर उनके मन में न राग होता है, न द्वेष। और इसीलिए उन परम उपकारी देव के लिए असत्य बोलने की संभावना ही नहीं है। महापुरुषों के वचनों पर ऐसा विश्वास रखना है।

श्री जिनेश्वर देव का कथन होने पर भी, अज्ञानता के योग से उसे समझने के हेतु जिज्ञासारूप शंका अवश्य होनी चाहिए, लेकिन अप्रतीतिकारक शंका कभी जागनी नहीं चाहिए और कभी ऐसी शंका जागे भी तो ऐसे ज्ञानी को असत्य बोलने का कारण ही नहीं है, ऐसा सोचें तो उत्पन्न हुई शंका भी तुरंत ही दूर हो जाएगी। उन तारक प्रभु की आज्ञा में मोहमग्न आत्माओं को अच्छा न लगे, ऐसा बहुत कुछ आता है, क्योंकि घर-संसार छोडने की बातें आती हैं; इसलिए वहां शंका होती है। कुछ न करना पडता होता तो लेशमात्र भी शंका न होती। जिन धर्मों में खाने-पीने की, विलास की छूट है, वहां शंका नहीं उठती है। शंका तो वहीं उठती है, जहां आत्मा की स्वच्छंद वृत्तियों पर अंकुश रखना होता है। दुनियादारी के व्यवहार में कहीं भी शंका होती है? नहीं! क्योंकि आपका वहां पर राग है। ऐसा राग आपका धर्म के प्रति होगा तो शंका की कोई गुंजाइश ही नहीं होगी।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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