‘खराब, बुरे
के भी गुण की प्रशंसा में हर्ज क्या?’ ऐसा कहने वाले को शास्त्र
कहते हैं कि ‘इस प्रकार बोलने वाला गुण का रक्षक, पूजक या प्रेमी नहीं है, अपितु
गुण का घातक और खूनी है।’
उस गुण का मूल्य ही नहीं है। वह स्वयं भी उन्मार्ग पर जाता
है और दूसरों को भी उन्मार्ग पर ले जाता है और थोडी बहुत प्राप्ति की हो, वह
भी हार जाता है,
इस प्रकार उसमें अनेक हानि रही हुई है।
अयोग्य व्यक्ति में रहे हुए किसी गुण को महत्त्व देने के और प्रकाशित करने के
परिणाम स्वरूप ही आज सन्मार्ग का संहार हो रहा है। जहां हीरे जडे हुए हों वे सारी
ही वस्तुएं सर पर रखी नहीं जाती। मोजडी में हीरे जडे हुए हों तो भी वह पैरों में
ही पहनी जाती है,
सर पर रखी नहीं जाती। फिर भी गुणानुराग के नाम से
अज्ञानियों की आज ऐसी ही दशा है। गुणानुराग की बातें करने वाले ऐसे लोग, प्रमोद
भावना के मर्म को नहीं समझ सके हैं।
प्रमोद भावना का हेतु गुणप्राप्ति का है। गुण देखकर आनंद होना, गुणवान
के गुण ग्रहण करने की इच्छा होना, अन्य में रहे हुए गुण कब प्राप्त हों, यही
भावना रहना, यह प्रमोद भावना का कार्य है। परंतु उस गुणवान व्यक्ति की प्रशंसा तो तभी ही
हो, जबकि वह व्यक्ति शुद्ध हो या शुद्ध का ही पक्षपाती हो, यानि
की मिथ्यात्व से दूषित न हो। आज गुण के नाम से, अयोग्य व्यक्ति की प्रशंसा के
परिणाम से सज्जनों को हानि हो रही है, इतना ही नहीं, अपितु
गुण का ही नाश हो रहा है। सम्यग्दर्शन के इस चौथे भयंकर दूषण के प्रताप से आज शासन
अनेक प्रकार से छिन्न-भिन्न हो रहा है।
गुण के राग को बढाने से पहले गुण, गुणाभास और अवगुण को पहचानने
चाहिए। कितने ही गुण ऐसे होते हैं कि जो गुणरूप में दिखाई देने पर भी परिणाम में
नाशक होते हैं। सम्यग्दृष्टि को इतना विवेकी बनने की आवश्यकता है कि अच्छी करनी के
द्वारा भी अयोग्य व्यक्ति कभी पूजित न हो जाए; अयोग्य व्यक्ति अच्छे दिखावे
से भी कभी सम्यग्दृष्टि को ठग न जाए। सयाने और चतुर तथा कुशल व्यापारी को धोखेबाज
व्यापारी या ग्राहक चाहे वैसे आडंबर से भी ठग नहीं सके। बडी-बडी बातों से, या
सोनैया के दिखावे से बुद्धिमान व्यापारी प्रभावित नहीं होता। ठगा नहीं जाता।
पूर्वकाल में वस्तु की परीक्षा इस ढंग से होती थी।
गुण भी स्थान में शोभा देते हैं। अयोग्य स्थान में रहे हुए गुण के लिए हृदय
में आनंद भले हो,
परन्तु उस व्यक्ति का महत्त्व बढाया नहीं जाता। गुण अवश्य
प्रशंसा करने योग्य,
पूजने योग्य, परंतु अयोग्य स्थान पर रहा
हुआ गुण प्रशंसा योग्य नहीं रहता। हृदय में रखा जाए तो रखें, परंतु
प्रशंसा तो की ही नहीं जाती। इतना होते हुए भी पूरा समझे बिना कहते हैं कि हम तो
गुणानुरागी हैं! यह दुर्भाग्यपूर्ण है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें