कृष्ण महाराजा ने भी कुत्ते के दांत की प्रशंसा की थी न? कृष्ण
महाराजा ने क्या कहा था?
‘कुत्ता भयंकर सडा हुआ और दुर्गंधभरा है, परंतु
उसके दांत अच्छे,
अनार की कली जैसे हैं।’ वहां प्रथम वाक्य लक्ष्य में क्यों
नहीं लेते? जिसमें कुत्ते की वास्तविक परिस्थिति बतलाने के बाद ही दांत की प्रशंसा की है।
वेश्या को रूपवान कहनी हो तो साथ में कहना पडेगा कि रूपवान तो है, परन्तु
अग्नि की ज्वाला जैसी है। अनेकों को फंसाने वाली है। पैसों के खातिर जात को (अपने
आपको) बेचने वाली है और निश्चित किए गए पैसे न दे तो उसके प्राण भी लेने वाली है।
इस प्रकार पूरी बात न करे और सिर्फ रूप की प्रशंसा करे, वह
कैसे चले? उससे तो अनेक लोग फंसें उसकी जोखिमदारी किसकी?
होशियार मनुष्य भी धोखेबाज हो तो सिर्फ उसकी होशियारी की प्रशंसा हो सकती है? या साथ
में कहना पडे की सावधान रहना! दुल्हे की प्रशंसा करे, परंतु
‘रात्रि-अंधा’
हो यह बात छिपाएं, कन्या पक्ष कन्या की प्रशंसा
करे, परंतु उसकी शारीरिक त्रुटियां छिपाएं तो कईयों के संसार नष्ट होने के उदाहरण
हैं न? वहां कहें कि,
‘हम तो गुणानुरागी हैं!’ यह चलेगा? इतिहास
में विषकन्या की बातें आती हैं। वह रूप-रंग से सुंदर, बहुत
बुद्धिमान, गुणवान भी अवश्य,
परन्तु स्पर्श करे उसके प्राण जाएं! उसके रूप-रंग की
प्रशंसा करें,
परंतु दूसरी बात न करें तो चलेगा? किंपाक
के फल दिखने में सुंदर,
परंतु सूंघने से उसका जहर चढे और खाने से प्राण हर ले। उसकी
सुंदरता की प्रशंसा की जा सकती है? की जाए तो साथ में ‘प्राण
लेनेवाले हैं’,
ऐसा कहना पडेगा कि नहीं? ज्ञानियों ने संसार को किंपाक
के फल जैसा कहा है,
गुणानुरागी को प्रशंसा करते हुए अत्यन्त विवेक रखना पडता
है।
सम्यक्त्व की यतनाओं में भी आता है कि श्री जिनेश्वर देव की प्रतिमा भी अन्य
तीर्थिकों द्वारा ग्रहण करने के बाद पूजी नहीं जाती, क्योंकि यह अनेक के
मिथ्यात्व की वृद्धि का कारण है। बुद्धिमान व्यक्ति कुछ भी मानकर जाता हो, परंतु
अन्य जन क्या समझें?
वह थोडे ही घर-घर कहने जाएगा? जिस स्थान पर जाने से
दुर्बल भावना उत्पन्न हो,
वहां न जाएं। इससे मूर्ति के प्रति अराग नहीं है, परंतु
उस स्थल के प्रति अराग है। विवेकहीनता पूर्वक जिस किसी के गुण की प्रशंसा को
शास्त्रकार चौथा दोष कहते हैं, क्योंकि उससे सम्यक्त्व का संहार और
मिथ्यात्व का प्रचार होता है। आज वीतराग देव, सच्चे निर्ग्रंथ गुरु और
सच्चे त्यागधर्म के प्रति अनुराग घटता जा रहा है, यह क्यों? कहना
ही पडेगा कि अयोग्य स्थल के गुणों की प्रशंसा के प्रचार से। इससे गुण के प्रति वैर
निर्मित होता है,
ऐसा न मानें। गुण के प्रति प्रेम है, परन्तु
हीरों से जडित मोजडी को सर पर नहीं रखा जाता। अच्छी चीज भी अयोग्य व्यक्ति के हाथ
में जाए तो अनर्थकारक है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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