आपका मन संसार से उद्विग्न
होकर धर्म के प्रति आकर्षित हो तो आपको अनुभव होगा कि हमें बहुत अच्छी सामग्री
मिली है। आप ऐसे कुल में जन्मे हैं कि ‘देव तो वीतराग होते हैं’, यह सुनने को मिला। ‘अभक्ति से खीजे नहीं और भक्ति
से रीझे नहीं’, ऐसे देव जन्म से ही आपको मिल गए। ‘त्यागी ही गुरु हो सकते हैं, घरबार वाले गुरु नहीं हो सकते’,
यह आपको बात-बात पर
सुनने को मिलता है। और इच्छा से या अनिच्छा से भी आपको संसार के त्यागी गुरु का
योग मिल गया है। ‘धर्म भी त्यागमय और अहिंसामय
मिल गया है।’
यह सब कैसे मिल गया? आप जैनकुल में जन्मे,
इसलिए न? ऐसा कुल महापुण्य से मिलता है न? हां, तो इस पुण्य का आपको कितना
आनंद है? क्या आपको अपने कुल का गौरव महसूस होता है? ऐसे गौरवशाली कुल में जन्म मिलने पर गर्व महसूस होता है? ऐसे कुल में जन्म लेकर अपने कुल की मर्यादाओं-मान्यताओं का
पालन करने, उनका अनुसरण करने का मन होता है? क्या आपको अपने कुल का गौरव बनाए रखने का मन नहीं होता?
अन्य कुलों में जन्म लेने
वालों को या तो देव मिले ही नहीं, यदि मिले तो ऐसे कि जिनके पास
जाने से रागादि का पोषण हो। हमारे यहां कोई ऐसा करे तो खराब माना जाता है। जैन का
बच्चा भी कहेगा कि हमारे देव वीतराग हैं। यह कम पुण्य है? हम जैन कुल में पैदा हुए हैं और सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं, लेकिन हमारा जीवन कैसा है? हमारा आचरण कैसा है? हमारा व्यवहार कैसा है? कभी हमने अपने अंतरंग में झांक कर देखा है? यदि हम अंतरंग में झांकेंगे तो हमें दिखाई देगा, हम अधिकांशतः दुष्प्रवृत्तियों में बहे जा रहे हैं। हमारी
आत्मा मलिन बनी हुई है। कषायों में हम लिप्त हैं। हमें सावधान होना है और इससे
मुक्ति पानी है। कोई आदमी रुग्ण है,
लेकिन जब तक उसे स्वयं
को बोध न हो कि मैं रुग्ण हूं, वह बीमारी से मुक्ति पाने का
प्रयास कैसे कर सकेगा?
यही हालत आज हमारी है। हमारे
जीवन की स्थिति विपरीत बनी हुई है। हमारी आत्मा में रोग हो रहा है। इस रोग से
मुक्त होने की तत्परता-उल्लास हम में दिखाई नहीं देता। रोग-मुक्ति के भाव ही पैदा
नहीं हो रहे हैं। यदि हो भी रहे हों तो भी हमारे उपाय विपरीत, उलटे ही हो रहे हैं और बीमारी ठीक होने की अपेक्षा बढ रही
है। यदि आप समझें तो आपके हाथ में हीरा आ गया है। देव, गुरु, धर्म आपको बिना ढूंढे ही
अच्छे मिल गए हैं। पुण्य ने इतनी अच्छी सामग्री आपको दे दी है, परन्तु इसे पहचानने की चिन्ता कितनों को है? इतना अच्छा मिल गया है,
फिर भी इसे पहचानने की
चिन्ता नहीं, इच्छा नहीं,
तो यदि यह सब नहीं
मिला होता तो क्या आप सुदेव, सुगुरु और सुधर्म को ढूंढने
निकलते? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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