एक-दूसरे को एक-दूसरे के साथ
मंतव्य सम्बंधी विचार भी धर्मवाद की रीति से करना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो ही
प्रायः जिसकी भूल होती है, उसे अपनी भूल का शीघ्र भान हो
सकता है। अन्यथा चाहे जैसे अच्छे व्यक्ति को भी जब अपनी मान्यता का ममत्वपूर्ण
आग्रह हो जाता है, तो उसके सुधरने की गुंजाइश कम
ही रहती है।
वाद में उतरे और मन में ऐसा
विचार रखे कि ‘जीतूंगा तो विजय का आनंद
उठाऊंगा, अन्यथा गाली देना तो आता ही है’, तो ऐसे वाद का परिणाम कैसा होगा? जैसे आजकल कई सटोरिये ऐसे होते हैं कि ‘आ जाए तो लेना ही है,
नहीं तो मेरे पास क्या
है जो ले जाएगा? घर, गहने, बर्तन आदि पहले से ही औरत और
बच्चों के नाम कर दिए जाते हैं।’ यह तो एक दांव खेलने की दानव
रीति है। इसमें दांव सीधा पड जाए तो मालिक बन बैठे। और जो दांव उलटा पड जाए तो
सामने वाले को रुलाए। जनता के दुर्भाग्य से आज ऐसे लोग सम्पन्न कहे जाते हैं। नीति
को चबा कर कमाने वाले होशियार कहे जाएं या लबाड?
जिस वाद में वाद करने वाले की
दृष्टि अपनी जीत की तरफ होती है; वह जीतने के लिए क्या
उथल-पुथल करता है और इतना करने पर भी यदि हारता है तो जीतने वाले की मुसीबत हो
जाती है। ऐसों के साथ यथासंभव वाद में न उतरा जाए तो अच्छा और यदि उतरना ही पडे तो
समझ लेना चाहिए कि वह जीतने के लिए सब तरह की तिकडम किए बिना नहीं रहेगा। उसका बस
चले तो वह शास्त्रों को भी उलट दे;
परन्तु जीतने की सारी
मेहनत व्यर्थ जाए और हारने लगे तो वह क्या करता है? गाली-गलौच और मारपीट या अन्य कुछ?
सज्जन व्यक्ति तो उसका
सामना ही नहीं कर सकता और यदि सहन न कर सके तो क्या हो? ऐसे समय, मार्ग से और आराधना से च्युत
न होने के लिए बहुत-बहुत धैर्य रखना पडता है। तत्त्व-बोध के लिए किया जाने वाला
वाद धर्मवाद है; इसके सिवाय के वाद तो कुवादों
में गिने जाते हैं।
वाद करने के पीछे यदि तत्त्व
को जानने की अभिलाषा न हो और केवल जय की अभिलाषा हो, ऐसा वादी जब वाद में हारता है तो वह विकराल रूप धारण कर सकता है। ऐसे अज्ञानी
और गर्विष्ठ मनुष्य के साथ वाद में नहीं उतरना चाहिए। ऐसे तुच्छ और घमंडी व्यक्ति
के साथ वाद में उतरना, एक बहुत बडा जोखिम मोल लेना
है। मिथ्याभिमानी मनुष्यों में विद्या हो,
यह संभव है, परन्तु वे उस विद्या को पचा नहीं पाते। उनकी विद्या उन्हें
कषाय की आग में सेकती है। जो कोई इनकी चपेट में आ जाए, उसका काम तमाम किए बिना ये
नहीं रहते। इन कारणों से ऐसे लोगों के साथ वाद में उतरना जैन शासन में निषिद्ध
किया गया है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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