बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

आग्रही मानस सत्य को नहीं समझ पाता


आग्रही मानस सत्य को नहीं समझ पाता

मैं असत्य ठहरूं तो कोई हर्ज नहीं, परन्तु श्री जिन-प्रणीत शास्त्र का तो जो यथार्थ अर्थ हो, वही होना चाहिए, ऐसी मनोदशा बराबर बनी रहनी चाहिए।ऐसी मनोदशा होने पर भी, किसी समय अनाभोग से ऐसा भी हो सकता है कि श्री जिनप्रणीत शास्त्र के विषय में बाधित अर्थ की श्रद्धा हो जाए, परन्तु यदि उक्त मनोदशा हो तो योग्य संयोग मिलने पर, उस मिथ्या श्रद्धा को जाते हुए और सच्चे अर्थ की श्रद्धा पैदा होते हुए देर नहीं लगती।

किसी समय शास्त्रों का वांचन, मनन, परिशीलन आदि करते-करते स्वयं को ही विचार आ जाता है कि इस कथन का यह अर्थ है, ऐसा मैं समझता था, परन्तु अमुक-अमुक कथनों को देखते हुए वह नहीं, अपितु यह अर्थ संगत होता है।अथवा ऐसा भी हो सकता है कि अन्य कोई शास्त्रवेत्ता मिल जाए और वह समझाए तो शीघ्र समझ में आ जाता है।

इसके लिए श्रावकों को भी यथाशक्ति उद्यम करना चाहिए। श्रावकों को केवल आत्मा के कल्याण की दृष्टि से विचार करना चाहिए कि ऐसे प्रसंग में किसी पर भरोसा किया जा सकता है?’ ‘पुरुष-विश्वासे वचन विश्वासः’, यह तो आप जानते हैं न? आपको खोजना चाहिए कि मार्ग के ज्ञाता और पूछने पर ममत्व के वशीभूत न होकर जैसा लगता हो, वैसा ही कहने वाले कौन हैं? जो कोई गुरु ऐसे प्रतीत हों, उनके विश्वास पर चलें और उसमें भी शंका हो जाए तो फिर शोध करें।

जिस गुरु पर विश्वास रखकर चलें, उस पर केवल धर्मबुद्धि से ही विश्वास रखें और दूसरे भी जो-जो सद्गुरु मिलें, उनमें से कोई दूसरी बात कहते हों तो उस विषय में जिन पर विश्वास किया है, उनको पूछ कर निश्चय कर लें। इस प्रकार निश्चय करते रहना चाहिए। यदि ऐसा प्रतीत हो कि वे इसमें डगमगा रहे हैं तो उनके भरोसे न रह कर, दूसरे जो कोई सद्गुरु विश्वासपात्र लगे हों, उनके विश्वास पर रहें। इस प्रकार आप चलें और उसमें कदाचित गुरु की भूल से आपको शास्त्र-बाधित अर्थ की श्रद्धा हो जाए तो उतने मात्र से आपका सम्यक्त्व चला नहीं जाता। कोई भी बात जब आग्रह में पड जाती है, तब बहुत बडी कठिनाई खडी हो जाती है।

आग्रही बना हुआ मानस, स्पष्ट रूप से शास्त्र-सम्मत निर्णय को स्वीकार करने में भी बाधा पैदा करता है। आजकल की ऐसी परिस्थिति बहुत विचित्र है। इससे बहुत कठिनाई होती है। शास्त्र से अबाधित अर्थ का निर्णय करने के लिए आवश्यक प्रयास करने के बदले, शास्त्र की बात को मिथ्या ठहरावे, ऐसा मध्य का मार्ग निकालने की इच्छा हो तो यह और भी भयंकर है। इससे शास्त्र के प्रति कैसी बुद्धि है, यह भी स्पष्ट हो जाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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