एक मात्र मिथ्यात्व के जाने
से ही आत्मा को इतना बडा लाभ मिल जाता है कि दुर्गति के कारण भी उसके लिए दुर्गति
का कारण नहीं बन सकते। क्यों? आत्मा के परिणामों में इससे
गजब का परिवर्तन आ जाता है। आत्मा की सारी रुचि ही पलट जाती है। अविरति का चाहे
जितना जोरदार उदय हो, परन्तु मिथ्यात्व का उदय न हो
तो वह अविरति का उदय, पाप से आत्मा को विराम नहीं
होने देता तो भी उसका हृदय पापमय नहीं होता। अविरति के उदय से सम्यग्दृष्टि आत्मा
भी पाप का सेवन करने वाली होती है,
परन्तु वह पापी नहीं
होती।
सम्यग्दृष्टि आत्मा को पापी
नहीं कहा जा सकता। यह तो अनंत-ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट शासन है। जहां दोष हो वहां
दोष भी बताते हैं और जहां गुण हो वहां गुण भी बताते हैं। अनेक दोषों के बीच में
रहे हुए गुण को भी छिपाते नहीं और अनेक गुणों के बीच में रहे हुए दोष को भी छिपाते
नहीं। केवल बाहर का देखे और अंदर न देखे,
ऐसा अज्ञानी करता है।
यह शासन, सम्यग्दृष्टि को पाप करने वाले के रूप में भी बताता है, सम्यग्दृष्टि भी अविरति का उदयवाला हो तो वह पाप से विराम
नहीं होता, ऐसा भी यह शासन कहता है। तो भी उसके पाप के आचरण की
तारीफ नहीं करता। उसके हृदय में पाप के प्रति अरुचि होती है, उसे भी नहीं छिपाता! सम्यग्दर्शन में तत्त्व यह है कि जो
जैसा हो, उसे वैसा मानना!
जो जैसा हो उसे वैसा न मानने
देने वाला और जो जैसा न हो, उसे वैसा मानने वाला
मिथ्यात्व, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मनवाता है। सुख के
मार्ग को दुःख का मार्ग और दुःख के मार्ग को सुख का मार्ग मिथ्यात्व मनवाता है।
मिथ्यात्व देव में देव बुद्धि, गुरु में गुरुबुद्धि और धर्म
में धर्मबुद्धि नहीं होने देता, जबकि अदेव में देव बुद्धि, अगुरु में गुरुबुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि कराता है।
अथवा सत् और असत् के विषय में वास्तविक कोटि की निर्णयात्मक बुद्धि नहीं होने
देता। मिथ्यात्व, विपरीत ज्ञान के साथ और
वास्तविक कोटि के ज्ञान के अभाव के साथ रहता है।
जैन कुल में उत्पन्न व्यक्ति
के देव भी सम्यक्त्व वाले, गुरु भी सम्यक्त्व वाले और
धर्म भी सम्यक्त्व वाला होना चाहिए। अतः जो कोई ऐसे देव-गुरु-धर्म की निश्रा में
ही चलता हो, उसमें मिथ्यात्व के लिए अवकाश नहीं होता। आप यदि
गीतार्थ की निश्रा स्वीकार कर लें तो सफल हो जाएं। गुरु की शोध में भी आप भूल न
खाएं, यह सावधानी रखनी है। आपके कषायों को वेग मिलता हो,
ऐसे गुरु अच्छे लगें, ऐसा नहीं होना चाहिए। गुरु
गीतार्थ होने चाहिए। आप अपनी गाडी अज्ञान में ही चलाते रहें, यह ठीक नहीं है। आपको तत्त्व समझने की कोशिश करनी ही
चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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