यदि लक्ष्मी के रागी मनुष्य
के हृदय में यह बात बराबर जंच जाती है कि ‘मेहनत करने पर भी लक्ष्मी
उसको ही मिलती है, जिसका पुण्य हो और पुण्य
बांधने का अच्छे से अच्छा उपाय प्राप्त लक्ष्मी का दान करना है’, तो वह प्रेम से दान देता है। उसके पास कोई मांगने जाता है
तो उसे ऐसा लगता है कि यह मुझे पुण्य-बंध कराने आया है।
विवेक हो तो तैरने का साधन
आया, ऐसा लगता है,
परन्तु केवल पुण्य पर
विश्वास हो तो भी आए हुए को पुण्य का साधन मानकर जो देता है, वह आनंद के साथ देता है। वह ऐसा नहीं कहता कि ‘मैंने कैसे कमाया है,
तू नहीं जानता। खून का
पानी किया है! मैंने कमाया वह इस तरह दे-देकर उडाने के लिए नहीं कमाया! पैसा चाहिए
तो मेहनत करो! ऐसा व्यक्ति जब चार लोगों के बीच बैठा हो, तब ऐसा कहे कि ‘पुण्य से लक्ष्मी मिली है’, तो क्या वह अपने दिल की बात बोलता है?
लक्ष्मी का अतिलोभ मनुष्य को
पागल बना देता है। सरोवर भरा हो तो वहां प्यासे जीव पानी पीने आते हैं न? जहां पानी हो,
वहां मनुष्य पानी भरने
जाए और जानवर पानी पीने आए, इसमें क्या नवीनता है? आपके पास कोई मांगने आया, वह आपको सुखी जानकर आया न? इस अवसर पर पुण्य का विचार
कहां भाग जाता है? ‘मुझे पुण्य से मिला है’, ऐसा मानने वाला,
‘मांगने वाले का पुण्य
नहीं था, जिससे उसे नहीं मिला’, इतना भी नहीं समझता?
‘पुण्य न हो तो मांगने पर मजदूरी भी नहीं मिलती!’ इतना भी विचार वह नहीं करता। उसे ऐसा भी विचार नहीं आता कि ‘मुझे अभी तो पुण्य से मिला है, परन्तु यहां यदि मैं पुण्य उपार्जन न करूं तो भविष्य में
कदाचित इससे भी खराब दशा आ सकती है।’
परन्तु ‘मेरा पुण्य’, इस प्रकार जो बोलता है, उसके हृदय में भी ऐसा ही हो तो उस पुण्यशाली को ऐसा विचार
आता है न? सच बात तो यह है कि जिनका पुण्य पापानुबंधी होता है, वे प्रायः पुण्य भोगते हैं और पाप बांधते हैं। तात्पर्य यह
है कि केवल पापानुबंधी पुण्यवालों के पास तो अपनी प्राप्त लक्ष्मी का सद्व्यय
करावे, इस प्रकार का दिल होता ही नहीं है।
पुण्य से मिला है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, परन्तु अकर्मी के हाथ में पेढी आ जाने जैसी बात है। ऐसा
होता है न? जो लडके कमाते तो नहीं, परन्तु बाप की पूंजी को सुरक्षित भी नहीं रख सकते, उन्हें जगत् में क्या कहा जाता है? वैसे ही आप भी इस सामग्री का सदुपयोग न कर सको, इस सामग्री की कीमत को न समझ सको और यहां से फिर संसार में
भटकने के लिए चल पडो तो क्या कहा जाए? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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