सामान्य लोगों की बात तो दूर
रही, परन्तु आजकल कतिपय धर्माचार्य माने जाने वाले भी
मध्यस्थता के नाम से उन्मार्ग का पोषण करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। वास्तविक रूप
में मार्ग को न प्राप्त करने वाले,
पाकर भी हार जाने वाले
अथवा भयंकर महत्वाकांक्षा से पीड़ित धर्माचार्य भी सत्य के खून में और असत्य के
प्रचार में मध्यस्थता की ओट में सहायक होते हैं, तो फिर बेचारे गाढ मिथ्यात्व के उदय से ग्रस्त व्यक्ति मध्यस्थता के नाम से
आत्मा को सद्धर्म से वंचित रखें, इसमें आश्चर्य क्या है?
तथाकथित समझदार गिने जाने
वाले आत्मा, सत्य-झूठ में मध्यस्थता तभी धारण कर सकते हैं, जब वे सत्य की अपेक्षा भी स्वयं को अधिक मूल्यवान मानते
हों। इससे स्पष्ट है कि, मध्यस्थता एक गुण है, परन्तु वह स्वयं के पुजारियों के लिए, न कि सम्यग्दृष्टियों के लिए। क्योंकि सम्यग्दृष्टियों के
लिए तो वह भी दोषरूप बन जाता है। इसी कारण से आचार्य भगवान श्री अकलंकसूरीश्वरजी
महाराज ने फरमाया है कि- ‘सत्य और असत्य तथा ‘सु’ और ‘कु’ का विवेक करने की शक्ति से रहित
आत्मा श्री जिनधर्म को नहीं प्राप्त कर सकता।’
ऐसे विवेक की प्राप्ति के लिए
दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षयोपशम के साथ दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम की अतिशय
आवश्यकता है, दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम के लिए भी यह सच्चा उपाय है
कि सत्य एवं असत्य का विवेक करने के लिए प्रयत्नशील बनना। ‘सफेद-सफेद सब दूध’
और ‘जो दूध कहा जाता है,
वह भक्ष्य ही होता है’, ऐसा मानने की वृत्तिवाले बनने से जैसे अकारण मृत्यु का
प्रसंग आ पडता है, वैसे ही तथाकथित गुरुओं को
गुरु मान लेने से और तथाकथित धर्म को धर्म मान लेने से आत्मा का भयंकर अहित होता
है।
दुनियादारी की किसी बात में
भूल होने पर कदाचित एक जीवन बिगड सकता है,
जबकि विवेक के अभाव
में और माध्यस्थ भाव से तो बहुत अधिक बिगडने की संभावना रहती है। अविवेक अवस्था
में सब देवों को देव मानने वाला, सब गुरुओं को गुरु मानने वाला
और सब धर्मों को धर्म मानने वाला क्षंतव्य हो सकता है, क्योंकि मिथ्यात्व से पीड़ित होते हुए भी सुदेव और कुदेव, सुगुरु और कुगुरु तथा सुधर्म और कुधर्म में विवेक करने का
वह विरोधी नहीं होता। ऐसा जीव विवेक करने की शक्ति आए, ऐसा ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करे तो क्षयोपशम
पाकर विवेकयुक्त बन सकता है। विवेक को प्राप्त करने में सहायक हो, ऐसी क्रियाओं में उद्यमी बनी हुई आत्मा, मिथ्यात्व से युक्त होते हुए भी सुन्दर विवेक के मार्ग को
पाकर उसकी सहायता से मिथ्यात्व का पराभव करके अनंतज्ञानी श्री वीतराग परमात्मा के
द्वारा प्ररूपित धर्म को पा लेता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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