जैनकुल में जन्म लेकर जो
भगवान श्री जिनेश्वर देवादि की अवगणना करते हैं, उन्हें आप पुण्यशाली कहते हैं या पापी?
यह कुल मिला तो पुण्य
से, परन्तु पाप बांधने के लिए ही मिला हो तो? जैन कुल में जन्मे हुए भी कतिपय लोग ऐसा कहते हैं कि ‘जिनेश्वर को किसने देखा है? मोक्ष है कहां? साधुओं में क्या धरा है? उपवास में धर्म किसने बताया? उपवास करने से शरीर के अंदर के कीडे मरें,
उसका पाप किसको? शरीर तो सार-संभाल के लिए है।’ ऐसों के लिए आप क्या कहेंगे? ‘उनको जो यह मिला, उसकी अपेक्षा न मिला होता तो
अच्छा होता, क्योंकि ये बिचारे यह मिला है, इसीलिए इसकी अवगणना करने का घोर पाप उपार्जित कर रहे हैं।’
सच्चे भगवान मिले फिर भी उनके
लिए कुछ करने का मन न हो, यह कौन करवाता है? अच्छा मेहमान मिले,
शक्ति बहुत हो, तो भी उसकी थाली में रोटी कौन परोसवाता है? धंधे का सम्बन्ध हो,
वहां लपसी (मिष्ठान्न)
और साधर्मिक को रोटी परोसने का मन कौन करवाता है? प्राप्त सामग्री की कीमत समझी हो तो ऐसा विचार आता है कि ‘मेरे आंगन में साधर्मिक कहां से, मेरा यह कितना अहोभाग्य?
मैं इनका आतिथ्य कर
सकूं, ऐसा अवसर आज मुझे असीम पुण्योदय से मिला है।’
लेकिन, घर पर जमाई आए तो अच्छा लगता है, और साधर्मिक आए तो अच्छा लगता है? कदाचित् जमाई की सार-संभाल करनी पडे, परन्तु मन में तो ऐसा लगता है न कि अभी तक साधर्मिक पर जैसा
चाहिए, वैसा अनुराग जागा नहीं! आपकी स्थिति न हो तो
साधर्मिक को रूखा-सूखा खिलाओ, परन्तु प्रेम से खिलाओ न? स्वजन के प्रति राग हुआ और साधर्मिक के प्रति राग न हुआ तो
आपको सोचना चाहिए कि ‘यह स्वजन का राग क्यों नहीं
गया और साधर्मिक का राग क्यों नहीं आया?’
व्यवहार की अच्छी सामग्री
मिली हो, परन्तु जो उसका सदुपयोग करता है, उसी को वह तारती है। ओघा हाथ में हो, परन्तु निर्लज्ज व्यवहार करे तो वह डूबता है न? वैसे ही आप भी समझें तो संसार सागर तैर सकते हैं। आपको जैन
कुल मिला, उसमें सम्यक्त्व को पाने के साधन सीधे मिल गए। ऐसे
कुल में आकर भी यदि आप मिथ्यात्व को और अनंतानुबंधी कषायों को नहीं छोड सकते हैं
तो आपका क्या होगा? आपको जो सुन्दर सामग्री मिली
है, उसकी कीमत को समझो। इस सामग्री की कीमत आप समझ सकें
और इस सामग्री का सदुपयोग आप कर सकें,
इस हेतु से
तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। सामग्री मिल जाए और उसके
सदुपयोग की इच्छा हो जाए तो मिथ्यात्व से हटकर सम्यक्त्व पाना सुलभ हो जाए।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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