‘जो मेरा है,
वही सत्य है’, यह दुराग्रह है,
यह आभिग्रहिक
मिथ्यात्व है। इसमें अज्ञान के साथ जोरदार आग्रह होता है। तत्त्वों की तात्विक समझ
न होने पर भी जो बात अपनी मान्यता में बैठ गई है अथवा जिस बात को पकड लिया है, उसमें समझाने वाले की समझ के लिए अवकाश ही न हो, ऐसा आग्रह होता है। समझाने वाला जैसे-जैसे समझाने का प्रयास
करता है, वैसे-वैसे उसकी बात को कैसे तोडना, यही प्रायः मिथ्यात्वी विचार करता है। उसके मन में ‘जो सत्य है,
वह मेरा’, ऐसा न होकर ‘जो मेरा है, वह सत्य’, ऐसा आग्रह होता है। ज्ञानियों
की निश्रा में श्रद्धा हो तो वह बात दूसरी है।
आभिग्रहिक मिथ्यात्व वालों
में दूसरों की बात सुनने-समझने का धैर्य भी नहीं होता, उन्हें अपनी बात का अहंकार होता है और ऐसे लोग आध्यात्मिक
जीवन में तो सफल नहीं ही हो सकते, लेकिन व्यावहारिक जीवन में भी
प्रायः असफल ही रहते हैं। इस असफलता को सफलता में परिणत करने के लिए दुराग्रह के अहंकार
को छोडने और ‘जो सत्य है,
वह मेरा है’, ऐसी सरलता को स्वीकार करने की मनोवृत्ति की जरूरत होती है।
आज आप तत्त्वज्ञान पाए हुए
नहीं हैं, परन्तु गीतार्थ की निश्रा में बराबर रहते हैं तो
तत्त्वज्ञान न होने से मिथ्यादृष्टि हैं,
ऐसा नहीं कहा जा सकता।
जैन कुल में जन्म लेने वालों को सम्यक्त्व पाने में सुलभता है, परन्तु इनमें भी यदि असद् आग्रह है, तो वे मिथ्यादृष्टि हैं। अज्ञानी व्यक्ति, केवल अपने कुलाचार को पकडकर जो धर्म क्रिया करता हो, उसे आगम की कसौटी पर कसने से इनकार करता हो अथवा आगम का
अतिक्रमण कर अपने कुलाचार को पकडे रखने की वृत्ति रखे, तो वह भी आभिग्रहिक मिथ्यादृष्टि माना जाता है। अच्छी
क्रिया को अच्छी जानने की वृत्ति अवश्य होनी चाहिए।
कुलाचार द्वारा आगम की
परीक्षा को बाधित करने वालों को सोचना चाहिए कि ‘आगम को प्रमाण माना जाए या आगम विरुद्ध कुलाचार को प्रमाण माना जाए? दोनों में बडा कौन?
कुल के पूर्वज या आगम? वास्तव में तो आगम ही बडा है, कुल के ज्येष्ठ पुरुष नहीं!’ ‘पूर्वजों के वचन प्रमाण’, ऐसा मानकर चलने वाले यदि आगम के वचन को जानबूझकर उत्थापित
करें, तो क्या यह चल सकता है? नहीं चल सकता। कोई बात शास्त्र-सम्मत हो और पूर्वजों की
उसमें भूल हुई हो, ऐसा भी संभव है न? तो मार्ग का शोधक ऐसे अवसर पर पूर्वज का आग्रह न रखकर
शास्त्र का आग्रह रखे। योग्य पूर्वज का आग्रह अवश्य रखना चाहिए, परन्तु वह आग्रह भी कदापि शास्त्र-वचन से विरुद्ध नहीं होना
चाहिए। आगम राग-द्वेष रहित केवली भगवंतों की वाणी है, इसलिए उन पर अविश्वास का कोई कारण ही नहीं है।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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