आभिनिवेशिक मिथ्यात्व, बडे लोगों का मिथ्यात्व है, ऐसा कह सकते हैं। कोई पैसे वाला व्यक्ति,
विषयों का अतिशय रागी
बन कर किसी कुल्टा स्त्री में ऐसा आसक्त हो जाता है कि वह सब कुछ छोड सकता है, परन्तु उसे नहीं छोडता और चाहे जैसे बुद्धिमान मनुष्य उसे
समझाएं कि यह कुल्टा स्त्री है और इसने तुझे मोहित कर लिया है; तो भी उसके राग में वह ऐसा अंधा बन जाता है कि समझाने वालों
को ही वह पागल मानता है और कुल्टा को सती मानकर उस पर मर मिटता है। ऐसा काम
आभिनिवेशिक मिथ्यात्व का है।
पढे-लिखे, समझ सकने और समझा सकने वाले, सूक्ष्म-बुद्धिगम्य बातों को भी सरलता से समझकर दूसरों को समझाने में दक्ष और
सम्यग्दृष्टि भी श्री जैन शास्त्रों की किसी भी बात के विषय में, जैन शास्त्र से विपरीत अर्थ करके अपनी उसी मान्यता के प्रति
आग्रही बन जाते हैं तो वे आभिनिवेशिक मिथ्यात्व वाले कहे जाते हैं। उनकी
सम्यग्दृष्टि का यहां पतन हो जाता है और वे मिथ्यात्व में उलझ जाते हैं।
आभिनिवेशिक मिथ्यात्व हो तो
वह सम्यग्दृष्टि आत्माओं को ही होता है। अर्थात् जो पहले सम्यग्दृष्टि हों वे ही
सम्यग्दर्शन से पतित होकर आभिनिवेशिक मिथ्यात्व के स्वामी बनते हैं। सब
सम्यग्दृष्टि इस मिथ्यात्व को प्राप्त करते हैं, ऐसा भी नहीं और सम्यग्दर्शन को अप्राप्त कोई इस मिथ्यात्व को प्राप्त करे, ऐसा तो होता ही नहीं। सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके तत्त्व
के स्वरूप को भलीभांति जानने के पश्चात् कदाचित् श्री जिनप्रणित शास्त्र की कोई
बात विपरीत रूप में पकड ली जाए, यह संभव है।
शास्त्र की बात का विपरीत
अर्थ हो जाए और फिर हठाग्रह के कारण वह पकड ली जाए, तो ऐसी दशा हो जाती है कि शास्त्र के ज्ञाता उसे समझाते हैं कि, तुम जो अर्थ करते हो वह गलत है’, तो भी वह हठाग्रह के कारण यही कहता है कि ‘नहीं, मैं जो अर्थ करता हूं, वही सच्चा है।’
शास्त्रों के यथार्थ
अर्थ के ज्ञाता उसे समझाएं कि इन-इन युक्तियों से तुम्हारा किया हुआ अर्थ गलत है’, तो भी वह अपने किए हुए अर्थ को सच्चा ठहराने के लिए उन
प्रमाणों का भी विपरीत और असंगत अर्थ करता है। ऐसे हठाग्रही अपने सम्यक्त्व को खो
बैठते हैं और मिथ्यात्व के उदयवाले बन जाते हैं। इस प्रकार के मिथ्यात्व को
आभिनिवेशिक मिथ्यात्व कहते हैं। सम्यग्दृष्टि आत्माओं को भी श्री भगवत्प्रणित
शास्त्र की बात में उल्टे अर्थ की श्रद्धा हो जाए, यह संभव है। लेकिन इसमें हठाग्रह नहीं होना चाहिए। किसी ज्ञानी गुरु की निश्रा
में बैठकर, बिना किसी पूर्वाग्रह के इसका समाधान निकालना चाहिए।
अन्यथा तो ऐसा व्यक्ति आभिनिवेशिक मिथ्यात्व का शिकार होकर स्वयं भी डूबता है और
दूसरों को भी डुबाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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