शास्त्र ने ‘ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः’ कहा है, यह आप जानते हैं न? ‘ज्ञान और क्रिया के योग से मुक्ति’,
इस बात पर तो आपकी
श्रद्धा मजबूत है न? यदि आप एक मात्र ज्ञान से या
एक मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती,
ऐसा मानते हैं तो आप
में इन दो में से एक अंग कम है, इसका दुःख होता है न? दो घोडे की गाडी में एक घोडा कैसे चल सकता है? उस गाडी और एक घोडे को देखकर दूसरे घोडे का अभाव याद आता है
न? दूसरे घोडे के बिना यह एक घोडा और यह गाडी है, वह भी काम के नहीं,
ऐसा अनुभव होता है न? ज्ञान और क्रिया,
इन दोनों के योग से
मुक्ति होती है; ऐसी श्रद्धा पक्की हो तो एक
अंग के अभाव का कितना दुःख होता है?
बिना समझ वाला व्यक्ति भी यदि
श्रद्धा वाला हो तो उसे ऐसा विचार होता है कि ‘मैं बिना समझ का हूं और इस
धर्म-क्रिया का समझदार व्यक्ति के समान रस का अनुभव नहीं कर सकता।’ इसलिए उसे ज्ञान की आवश्यकता रहती है। यदि आपको ज्ञान की
आवश्यकता महसूस हो तो ऐसा विचार आना चाहिए कि ‘मैं तो कोरा रह गया, परन्तु मेरे बच्चों में यह कमी नहीं रहनी चाहिए।’ जैसे-जैसे अंग्रेजी पढाना जरूरी लगा तो गरीब मां-बापों ने
बच्चों को कर्ज लेकर भी पढाया न? आपके सुखी-सम्पन्न होते हुए
भी आपके बच्चे धर्म से अज्ञानी रहें,
यह शर्मजनक लगता है? वहां तो अंग्रेजी सीखे बिना आजीविका कैसे चलेगी, यह अनुभव हुआ। तो यहां ऐसा अनुभव क्यों नहीं हुआ कि इस
ज्ञान के बिना इनका निस्तार-मोक्ष रुक जाएगा?
तत्त्वों का वास्तविक
ज्ञान केवल धर्मक्रियाओं के लिए ही उपयोगी है,
ऐसा भी नहीं है। अधर्म
की क्रिया करनी पडे तो भी हृदय अधर्ममय न बन जाए, इसके लिए भी तत्त्वों का सच्चा ज्ञान आवश्यक है। कौनसी क्रिया करने योग्य है
और कौनसी क्रिया करने योग्य नहीं है,
क्रिया करते समय कैसे
भाव रखें और कैसे नहीं, यह सब तत्त्वों का वास्तविक
ज्ञान हो तो समझा जा सकता है।
यदि आपको तत्त्वज्ञान की
आवश्यकता लगी होती तो आपने बच्चों को जैसे व्यवहार में सुशिक्षित बनाया, वैसे तत्त्वों के विषय में भी सुशिक्षित बनाया होता! यदि
आपने बच्चों को धर्म में सुशिक्षित बनाया होता तो वे धर्म का झंडा लेकर फिरते!
आवश्यकता होने पर वे प्राण भी दे देते! आपको जो बात जरूरी लगती है, उसके लिए आप कितने कष्ट उठाते हैं? वैसे यहां भी यदि जरूरी समझते तो आप कष्ट उठाकर भी पढते और
पढाते। दूसरी बात यह है कि तत्त्वों के वास्तविक कोटि के ज्ञान में तो यह गुण है
कि वह ले जाता तो है मोक्ष की तरफ,
परन्तु गृहस्थ के रूप
में रहना पडे तो गृहस्थाचार को भी सुधार देता है। तत्त्वज्ञान के प्रताप से नम्रता, विवेक, धैर्य आदि गुण भी स्वयमेव आ
जाते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें