सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

दृष्टिराग, कामराग, स्नेहराग हलाहल विष-तुल्य हैं


तत्त्व के विषय में आप मरते समय तक अज्ञानी रहे तो यह इतना दुःखद नहीं, जितना मिथ्या सिर हिलाना और दुराग्रह सेवन करना दुःखद है। ज्ञानियों ने दृष्टिराग के विषय में तो स्पष्ट कहा है कि-

दृष्टिरागस्तु पापीयान्, दुरुच्छेदः सतामपि।

यह पापी दृष्टिराग तो सत्पुरुषों के लिए भी कठिनाई से नष्ट किया जा सकने वाला है। इस राग के वश होकर बहुत से सत्पुरुष भी हार गए हैं। परीक्षक शक्ति होने पर भी दृष्टिराग के पाप के कारण सत्य-झूठ की परीक्षा न कर सके। अतः गुणानुराग के अभिलाषी को इस दृष्टिराग का सर्वथा त्याग करना चाहिए।

गुणानुराग को पाने के लिए और उसे विकसित करने के लिए स्नेहराग और कामराग पर भी विजय पाना चाहिए। स्नेहादि के आधीन भी इस तरह नहीं हो जाना चाहिए कि जिससे सत्य-झूठ की पहचान ही न हो। स्नेहराग और कामराग के आधीन बनने से तो कुटुम्ब में भी झगडे बढ जाते हैं। एक के प्रति अति स्नेह हो तो उसकी भूल भूलरूप में नजर नहीं आती और उसके कहने से दूसरों की भूल न होने पर भी भूल नजर आने लगती है। फिर भाई-भाई के बीच में भी झगडा होता है न? विवेकीजनों को स्नेहराग के इतने आधीन नहीं बनना चाहिए।

कामराग से क्या होता है, यह तो लगभग सबको अनुभव सिद्ध है न? आजकल के लडके प्रायः अपनी स्त्री की कही हुई बात को सच्ची मानते हैं और माता-पिता की कही हुई बात को झूठी मानते हैं। स्त्री ने झूठी बात कही हो और इसलिए माता-पिता लडके को कहें कि, ‘इसकी बात झूठी हैतो भी सामने ऐसे बोलने वाले लडके भी हैं, जो कहते हैं कि यह (पत्नी) झूठ नहीं बोलती है।प्रायः कामराग का जोर ही ऐसा बुलवाता है। अतः कामराग और स्नेहराग भी, यदि सावधानी पूर्वक व्यवहार करना न आए तो, मारक सिद्ध होते हैं। किसी के गुण-दोष का निर्णय करना हो तो उसके प्रति राग-द्वेष से अलग रहकर निर्णय करना चाहिए। राग, दोष देखने नहीं देता और द्वेष, गुण देखने नहीं देता।

प्रतिपक्षी का राग उसके गुण की उपेक्षा करने के लिए प्रेरित करता है और प्रतिपक्षी का द्वेष, उसके दोष की उपेक्षा करने को प्रेरित करता है। कहावत है कि दुश्मन का दुश्मन अपना मित्र होता है। दृष्टिराग, स्नेहराग और कामराग वालों को ऐसी बहुत सावधानी रखने की आवश्यकता है। गुणराग और गुणीजनों के राग में यह अंतराय करने वाला नहीं हो, यह संभव है, परन्तु यदि आत्मा भान भूल जाए तो दृष्टिराग, स्नेहराग और कामराग भी गुणराग और गुणीजनों के राग में अंतराय करने वाला बनकर विशेष नाशक हो सकता है। मीठा लगता है, पर ये हलाहल जहर के समान हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें