मनुष्य भव, आर्यक्षेत्र आदि मिलने मात्र से और उत्तम कुल, जाति, बल, रूप, दीर्घायु और निरोग शरीर मिलने
मात्र से श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती।
श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित धर्म की प्राप्ति के लिए तो सबसे अधिक
सत्य-असत्य और ‘सु-कु’ का विवेक चाहिए। यह विवेक दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम पूर्वक
ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के क्षयोपशम के बिना संभव नहीं है। अतः आर्यदेशादि
उत्तम सामग्री को प्राप्त पुण्यात्मा को उत्तम विवेक प्राप्त करने के लिए
प्रयत्नशील बनना ही चाहिए। यह विवेक प्राप्त करने के बाद सत्य-असत्य का और ‘सु-कु’ का विवेक कर, ‘कु’ का त्याग करने के लिए और ‘सु’ को स्वीकार करने के लिए तैयार
रहना चाहिए। इसके बिना परमशुद्ध श्री जिनधर्म की प्राप्ति संभव नहीं है।
जो जीव स्वयं को धर्म के
अभिलाषी कहते हैं और फिर भी ‘सत्य-असत्य’ तथा ‘सु-कु’ के विवेक से दूर रहना चाहते हैं, उन जीवों की विषम दशा सचमुच दयनीय है। एक तरफ, सत्य की पूजा का दावा करना और दूसरी तरफ सत्य-असत्य के
विवेक के प्रति अरुचि बताना, यह सचमुच दंभ को ही सूचित
करता है। ऐसे लोगों का सत्य की पूजा का दावा,
सत्य-असत्य के विवेक के
प्रति उनकी अरुचि से पंगु बन जाता है और दंभरूप सिद्ध हो जाता है। शुद्ध देव की
उपासना करने का इच्छुक आत्मा सुदेव और कुदेव का विवेक करने से इनकार करे, यह संभव ही नहीं है। जिनके जीवन दोषों से दूषित हों, जिनके उपदेश विवेकहीन हों और जिनकी मूर्तियां रागादि चिह्रों
से कलंकित हों, उन्हें देव के रूप में मानने
और पूजने का मन तो उन्हीं का हो सकता है,
जो अठारह दोषों से
रहित शुद्ध मोक्षमार्ग के प्ररूपक और रागादि चिह्रों से अकलंकित मुद्रा वाले
शुद्धदेव के स्वरूप आदि से अज्ञात हों। शुद्ध देव के स्वरूप को जानने का दावा करने
वाला अशुद्ध देवों की उपासना में भी रुचि रखे तो मानना पडेगा कि बेचारा मिथ्यात्व
के रोग से पीड़ित आत्मा है।
किसी का आयुष्य और पुण्य
बलवान हो तो मरने के लिए किया गया विषपान भी उसका नाशक न होकर रोग-निवारक बन जाता
है। इससे ‘विषभक्षण भी रोगनाशक है’, ऐसा कोई मानने लग जाए और यही बात उसके हृदय में स्थित हो
जाए, तो वह स्वयं भी मरता है और अन्य को भी मारता है; इसी तरह देव-गुरु-धर्म के सम्बंध में भी विवेक की अपेक्षा न
रखने वाले व्यक्ति कदापि श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित धर्म को प्राप्त
नहीं कर सकते। शुद्धदेव के सच्चे उपासक किसी के निंदक नहीं होते; परन्तु वे अवसर पाकर शुद्ध-अशुद्ध के स्वरूप को प्रकाशित
करने वाले न हों, यह संभव नहीं। विवेकीजन शक्ति
होने पर और आवश्यकता पडने पर सत्य के समर्थक,
असत्य के उन्मूलक न
बनें तो सत्य की अभिलाषी आत्माओं को सत्य की प्राप्ति कैसे हो सकती है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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