जैनकुलों के आचार भी कैसे? जैनकुल के आचारों को यदि रूढ से भी पाला जाए तो भी लाखों
पापों से बचा जा सकता है। रात्रि को न खाना,
अर्थात् जिस काल में
अधिक जीवोत्पत्ति हो, उस काल में चूल्हा न जलाना।
जीवदया का पालन भी हो और शरीर का निर्वाह भी। अन्य कुलों में प्रतिदिन रात्रि को
चूल्हे जलते हैं न? रात्रि को 10-12 बजे झूठन निकलता है अथवा सारी रात झूठन पडा रहता है और
उसमें जीवोत्पत्ति होती रहती है।
एक केवल रात्रि भोजन न करने
के आचार का पालन करने से ही, कितनी जीव हिंसा से बचा जा
सकता है? परन्तु आज यह आचार जैन कुलों में रूढ है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। कुल तो जैन का है, परन्तु जैन कुल की मर्यादाएं, जैनकुल का आचार जीवित नहीं रहा न?
जैन के घर आया हुआ इतर
व्यक्ति भी ऐसा समझ जाता था कि, ‘यहां रात में खाने को नहीं
मिलेगा।’ जैनों के घरों के पास रहने वाले अन्य कुटुम्बों की
स्त्रियां भी जैन स्त्रियों से कहती हैं कि- ‘आपका आचार बहुत अच्छा है! रात
हुई कि रसोईघर बंद। हमारे यहां तो रात्रि में धुनी जलती है।’ तात्पर्य यह है कि जैनकुल के आचार भी ऐसे कि अन्यों को लगे
कि ये लोग कितने सुखी हैं? जैन को 24 घंटों में से 12
घंटों का तो पूर्ण
विश्राम, ऐसा अन्यों को लगता है न? ये कुलाचार जीवित हों तो जैन भाई-बहन कितना धर्म कर सकते
हैं!
जैन को प्रातः नवकारशी और रात
को चौविहार करने में कोई तकलीफ नहीं होती! जैन का छोटा बच्चा भी रात को नहीं खाता!
कोई पूछे कि क्यों? तो कहेगा कि ‘रात को नहीं खाना चाहिए;
मेरी माता, मेरे पिता, मेरे भाई रात को नहीं खाते।’ अमुक खाना और अमुक न खाना, यह जैन का बच्चा शुरू से समझता है। जैन जहां जाता है, वहां त्याग का प्रभाव छोडकर आता है। ऐसे कुल में जन्मे हुओं
के लिए मिथ्यात्व को धक्का देना कितना सरल है!
दूसरों को यह समझाना पडता है
और उनके लिए यह समझना कठिन भी है कि रात्रि को क्यों नहीं खाना?’ जैन कुलों के लिए तो यह बात रूढ होनी चाहिए। यह कुल ऐसा है
कि स्वयमेव बहुत से पाप बंद हो जाते हैं। खान-पान में से बहुत-सा विकार निकल जाता
है, उत्तेजक पदार्थ बहुत अंशों में बंद हो जाते हैं।
कितना अद्भुत है जैनाचार, लेकिन हम उसका पालन करें तो
न! हमारे पूर्वज इनका पालन करते थे। ऐसा आचरण हमारे कुल के गौरव को बढाता था और
पाप कर्मों के बंधनों से बचाता था,
लेकिन आज? यदि जैनों को जो मिला है, उसकी कीमत होती तो आज भी जैन शासन की अनोखी जाहोजलाली होती! आज इस पर गंभीरता
पूर्वक चिन्तन की जरूरत है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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