जहां तक जीवों को अपनी अल्पता
और भगवान श्री जिनेश्वर देवों की अनंतगुणी महत्ता का भान कायम रहता है, वहां तक तो जीव मिथ्यात्व से सहज ही बच जाता है। परन्तु, जब जीव अपनी अल्पता को भूल जाता है और अपनी ही महत्ता की
कल्पना करने लगता है, तब मान-कषाय यह काम करता है
कि ऐसे जीव को धकेल-धकेल कर यहां तक धकेल देता है कि ‘मैं सच्चा और भगवान श्री जिनेश्वर देव झूठे।’
कल्याण के अभिलाषी जीवों को
तो ऐसा ही विचार करना चाहिए कि ‘भगवान श्री जिनेश्वर देव ऐसे
थे कि वे कदापि कुछ भी मिथ्या नहीं कह सकते। जिनमें राग नहीं, द्वेष नहीं,
मोह नहीं, जो वीतराग और सर्वज्ञ हैं, उन तारकों के वचन कदापि मिथ्या नहीं हो सकते।’
परन्तु, मान से अतिशय ग्रसित जीव इस बात को भूल जाते हैं। ‘कहां मैं अल्पज्ञानी और कहां वे अनंत ज्ञानी? इस बात को भूल कर अनंतज्ञानी के वचन की प्रामाणिकता के विषय
में संशय ही किया करे; अथवा ‘उन तारक का वचन मिथ्या है’, ऐसा मानने की मूर्खता करे, तो यह मान-कषाय का साधारण
प्रभाव है? महान समर्थ व्यक्ति भी इस मान-कषाय के आधीन बनकर
पतित हो जाते हैं और वे ऐसे पाप के उपार्जन करने वाले बन सकते हैं कि जिस पाप के
योग से वे लम्बे समय तक भी संसार में भटकने वाले बन जाते हैं। इसलिए मान-कषाय से
हमेशा बचना चाहिए। इसके लिए जीवन में सरलता-ऋजुता चाहिए।
मान-कषाय से बचने के लिए सदैव
इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि ‘वही सत्य और शंकारहित है जो
भगवान श्री जिनेश्वर देवों ने प्ररूपित किया है’, इस वाक्य को और इस आशय वाले दूसरे भी वाक्यों को याद करके, भगवान श्री जिनेश्वर देवों के वचनों की प्रामाणिकता को हृदय
में प्रमुख स्थान दिया जाए तो सूक्ष्मार्थ आदि के सम्बन्ध में प्रायः संशय उत्पन्न
नहीं हो सकता और कदाचित उत्पन्न हो जाए तो वह टिक नहीं सकता। इससे गलत अर्थ में
पडने पर भी अपनी मान्यता का आग्रह नहीं होगा और तुरन्त श्री जिनेश्वर देवों के
ज्ञान की विशालता का स्मरण हो आएगा।
इसके साथ ही एक बात और, कि किसी भी प्रकार के मिथ्यात्व से बचने और दुर्गति को
रोकने के लिए स्वाध्याय का क्रम निरंतर जारी रखना चाहिए। व्यक्ति कितना ही ज्ञानी
और ऊंचे पद पर आसीन क्यों न हो वह आज के युग में उतना ज्ञानी अथवा केवलज्ञानी नहीं
हो सकता, यह सर्वविदित है,
इसलिए जितना भी अध्ययन
स्वाध्याय किया जाए, कम है। सीखने की अंतिम सांस
तक चेष्टा, यह व्यक्ति को सरल और विवेकी (सम्यग्दृष्टि) बनाए
रखने में सहायक है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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