सम्यग्दृष्टि में शास्त्र की
किसी भी बात का विपरीत अर्थ करने की भावना तो स्वप्न में भी नहीं होती, परन्तु उपयोग शून्यता आदि के योग से विपरीत अर्थ हो जाना और
समझफेर के कारण यह अर्थ सच्चा है, ऐसा मन में बैठ जाए, यह हो सकता है। परन्तु,
उतने मात्र से
सम्यक्त्व जाता रहे और मिथ्यात्व का उदय हो जाए, ऐसा नहीं होता। अनाभोग के कारण कोई बात विपरीत रूप से भी समझ ली जाए और जिस
रूप में वह समझ ली गई है, वही सत्य है, ऐसा भी लग जाए,
यह संभव है। परन्तु, इसमें हठाग्रह नहीं आना चाहिए। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ‘मुझे ऐसा लगा इसलिए ऐसा ही है’, ‘अभी मैं छद्मस्थ हूं,
अतः मुझे भी अनुपयोग
से गलतफहमी हो सकती है’, यह बात नहीं भूलनी चाहिए।
यह विचार जीवित हो तो वह अन्य
शास्त्रवेत्ताओं के साथ, जो उसके अर्थ को गलत बताते
हैं, झगडा नहीं करता,
परन्तु अन्य
शास्त्रवेत्ता जो अर्थ करते हैं, उस अर्थ को समझने का प्रयत्न
करता है’। ‘मेरा किया हुआ अर्थ गलत सिद्ध
नहीं होना चाहिए’, ऐसा विचार न करते हुए वह ऐसा
विचार करता है कि ‘यदि मेरा किया हुआ अर्थ गलत
है तो मुझे सही अर्थ को समझ लेना चाहिए।’
उसे ऐसा विचार होता है
कि ‘मेरा किया हुआ अर्थ गलत ठहरे, इसकी मुझे चिन्ता नहीं,
परन्तु शास्त्र का
यथार्थ अर्थ ही होना चाहिए। छद्मस्थता आदि के कारण मुझ से गलत अर्थ हो गया हो तो
मुझे उसका भान हो जाए तो बहुत अच्छा। जिससे मेरे द्वारा हुए गलत अर्थ के लिए मैं
मिच्छा-मि-दुक्कडं देकर मेरे इस पाप को धो सकूं! मैं वहीं तक सत्य हूं, जहां तक भगवान ने जो अर्थ कहा है, उस अर्थ को मानूं और कहूं। मेरा सच्चापन भगवान के आश्रित
है। भगवान ने जो कहा वही सत्य है। जहां तक मैं उन तारक भगवान द्वारा प्ररूपित कहता
हूं, वहीं तक मैं सत्य हूं। अतः उन तारक द्वारा कथित अर्थ
से विपरीत अर्थ अनुपयोग से भी मुझ से हो गया हो तो वह मुझे सुधार लेना चाहिए।
जिसमें इस प्रकार की सरलता और
धारणा होती है, वह अन्य शास्त्रवेत्ताओं की
बात को कितने प्रेम से सुनता है? अन्य शास्त्रवेत्ता ऐसा कहते
हों कि ‘तुम्हारा किया हुआ अर्थ गलत है’, तो उस समय उसे ऐसा नहीं लगता कि ‘मेरी भूल निकालने वाले तुम कौन होते हो?’ वह तो ऐसे शास्त्रवेदियों के कथन को प्रेम से सुनता है और
उस पर सम्यक विचार करता है। इस धारणा में,
अपने अर्थ का ममत्व
उसे विपरीत दिशा में नहीं ले जा पाए,
इसकी सावधानी रखता है।
इतनी सावधानी हो तो, शास्त्र की किसी बात का
विपरीत अर्थ हो जाने पर भी सम्यक्त्व नहीं जाता। जहां यह मनोवृत्ति हो जाए कि ‘यह अर्थ मेरा किया हुआ या मेरा पकडा हुआ है, इसलिए सत्य है’,
तो वहां सम्यक्त्व टिक
नहीं सकता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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