तत्त्वज्ञान-प्राप्त आत्मा को
संसार में रहना पडे तो वह रहती है जरूर,
परन्तु सावधान होकर
रहती है। तत्त्वज्ञान को प्राप्त व्यक्ति उस प्रकार के कर्म के उदय से विरति को न
पा सके, यह संभव है,
परन्तु उसमें विराग तो
अवश्य होता है। भोगों के सेवन के समय भी विराग बना रहता है। अर्थात् उसकी सारी
क्रियाएं विरति को समीप लाने वाली होती हैं। आप संसार में सावधानी से रहते हैं
क्या? आपने बंगले बनवाए और बहुत-सी सामग्रियां एकत्रित की, परन्तु उनमें भी क्या तब तक रह सकते हैं, जब तक कि वे रहें?
प्रायः नहीं ही। तो आप
अपने सुख के लिए जो सामग्री एकत्रित करते हैं,
उसके विषय में क्या
आपको ऐसा विचार आता है कि कौन जाने,
इसे कौन भोगेगा? ज्ञान हो तो विचार आ सकता है।
तत्त्वज्ञान-प्राप्त व्यक्ति
ऐसा भी समझता है कि ‘मुझे जाना है, यह निश्चित है। मेरी एकत्रित सामग्री का भोग, मेरे जीते-जी या मरने के बाद दुश्मन भी नहीं करेगा, यह निश्चित नहीं है।’
जो कोई बंगला बनवाते
हैं, वे क्या सब उसमें रह पाते हैं? नहीं। तो बंगला बंधवाते समय बहुत रस आ जाए तो झट से ऐसा
विचार भी आता है कि ‘मूर्ख! इसमें रस आने की क्या
बात है? बंगला आधा ही बंधा हो और तुझे जाना पड सकता है। जिस
दिन निवास का मुहूर्त निकाला हो, उसी दिन तेरी अर्थी भी निकल
सकती है।’ आप जानते हैं,
मरे हुए जन्म न लें यह
संभव है, परन्तु जन्मे हुओं का मरण न हो, यह संभव नहीं है। जन्मे हुए न मरें, ऐसा कभी हुआ नहीं,
होता नहीं और होगा भी
नहीं। साथ ही इस उम्र में, इस समय में, इस स्थान पर नहीं मरेंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता। दूधमुंहा बच्चा भी मर सकता है, किशोर भी मर सकता है,
नवयुवक भी मर सकता है, प्रौढ और वृद्ध भी मर सकता है। यदि ऐसा ज्ञान हो तो इससे भी
सावधानी आती है न?
आप जीएं वहां तक, आपका इकट्ठा किया हुआ धनादि आप भोग सकेंगे और आपके दुश्मन
नहीं भोग सकेंगे, ऐसा कोई नियम है क्या? बहुतों का धनादि चला गया, उसे दुश्मन भोगते हैं और जिन्होंने रस से निर्माण कराया, वे उसे देख-देखकर
जलते हैं, परन्तु कुछ कर नहीं सकते। पाकिस्तान से आए हुओं की
क्या दशा हुई, यह जानते हैं न?
ज्ञानी हो, उसे भी पाप करना पडे,
यह संभव है, परन्तु वह सावधान रहता है। प्रसंग आने पर ममता तोड देने में
उसे देर नहीं लगती। युद्धभूमि में भी जहां मृत्यु नजदीक प्रतीत हुई, ज्ञानीजन सब छोडकर,
अनशन करके आराधना कर
सकता है। इसी तरह समाधि का अभिलाषी सम्यग्दृष्टि अवसर के अनुसार व्यवहार कर लेता
है। इसका अनुभव या तो ज्ञानी को होता है अथवा जो अपने मन को समाधि में रखने के लिए
सतत प्रयत्नशील हो उसे होता है। इस प्रकार तत्त्वज्ञानी हर कदम पर सावधान होकर
जीता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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